षष्ठोऽध्यायः अतीतान्तराध्यायान्ते ध्यानयोगस्य यथार्थ ज्ञान के लिये जो अन्तरंग साधन है उस सम्यग्दर्शनं प्रति अन्तरङ्गस्य सूत्रभूताः श्लोकाः ध्यानयोगके सूत्ररूप जिन 'स्पर्शान्कृत्या बहिः' इत्यादि श्लोकोंका पूर्वाध्यायके अन्तमें उपदेश 'स्पर्शान्कृत्वा बहिः' इत्यादय उपदिष्टाः तेषां किया है, उन श्लोकोंका व्याख्यारूप यह छठा वृत्तिस्थानीयः अर्थ षष्ठः अध्याय आरभ्यते । अध्याय आरम्भ किया जाता है । तत्र ध्यानयोगस्य बहिरङ्ग कर्म इति परन्तु ध्यानयोगका बहिरंग साधन कर्म है इसलिये जबतक ध्यानयोगपर आरूढ़ होनेमें समर्थ यावद् ध्यानयोगारोहणासमर्थः तावद् गृहस्थेन न हो, तबतक अधिकारी गृहस्थको कर्म करना अधिकृतेन कर्तव्यं कर्म इति अतः तत् स्तौति । चाहिये अतः उस (कर्म) की स्तुति करते हैं । ननु किमर्थं ध्यानयोगारोहणसीमाकरण पू०-ध्यानयोगपर आरूढ़ होनेतकको सीमा क्यों बाँधी गयी ? जबतक जीवे तबतक विहित यावता अनुष्ठेयम् एव विहितं कर्म यावजीयम् । कर्मोका अनुष्ठान तो सबको करते ही रहना चाहिये ? न, 'आरुरुक्षोः मुनेयोगं कर्म कारणमुच्यते उ०-यह ठीक नहीं; क्योंकि 'योगपर आरुढ इति विशेषणात् आरूढस्य च शमेन एव गये हैं। ऐसा कहा है और योगारूढ़ योगीका होनेकी इच्छावाले मुनिके लिये कर्म कर्तव्य कहे संबन्धकरणात् । केवल उपरामतासे ही सम्बन्ध बतलाया गया है। आरुरुक्षोः आरूढस्य च शमः कर्म च यदि आरुरुक्षु और आरूढ दोनोंहीके लिये उभयं कर्तव्यत्वेन अभिप्रेतं चेत् स्यात् तदा | शम और कर्म दोनों ही कर्तव्यरूपसे माने गये हों, तो आरुरुक्षु और आरूढके शम और कर्म आरुरुक्षोः आरूढस्य च इति शमकर्मविषय- अलग-अलग विषय बतलाकर विशेषण देना और भेदेन विशेषणं विभागकरणं चअनर्थकं स्यात् । विभाग करना व्यर्थ होगा ! तत्र आश्रमिणां कश्चिद् योगम् आरुरुक्षुः --उन आश्रमवालोंमें कोई योगारूढ होनेकी इच्छावाला होता है और कोई आरूढ होता है भवति आरूढः च कश्चिद् अन्ये न आरुरुक्षवो | परन्तु कुछ दूसरे न तो आरूढ होते हैं और न न च आरूढाः तान् अपेक्ष्य आरुरुक्षोः आरुरुक्षु ही होते हैं । उनकी अपेक्षासे 'आरुरुक्षु' और 'आरूढ' यह विशेषण देना और ( उन दोनों आरूढस्य च इति विशेषणं विभागकरणं च प्रकारके योगियोंको साधारण श्रेणीके लोगोंसे पृथक् करके) उनका विभाग करना, ये दोनों उपपद्यते एव इति चेत् । बातें ही बन सकती हैं।