पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१७२

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श्रीमद्भगवद्गीता न, 'तस्यैव' इति वचनात् । पुनः योग- उ0-यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि 'तस्यैव' | इस पदका प्रयोग किया गया है । एवं 'योगार- ग्रहणात् च “योगारूढस्य” इति य आसीत् ढस्य इस विशेषणमें योग शब्द भी ग्रहण किया पूर्व योगम् आरुरुक्षुः तस्य एव आरूढस्य शम गया है । अर्थात् जो पहले योगका आरुरुक्षु था एव कर्तव्यं कारणं योगफलं प्रति उच्यते इति । वही जब योगपर आरूट हो गया तो उसी योगा- रूढका योग-पालकी प्राप्तिके लिये शम ही कारण अतो न यावजीवं कर्तव्यत्वप्राप्तिः कस्यचिद् यानी कर्तव्य बताया गया है। इसलिये कोई भी अपि कर्मणः। कर्म जीवनपर्यन्त कर्तव्य नहीं होता। योगविभ्रष्टवचनात् च । गृहस्थस्य चेत् तथा योगभ्रष्टत्रिश्यक वर्णनसे भी यही बात सिद्ध होती है। अभिप्राय यह कि, यदि कर्म कर्मिणो योगो विहितः षष्ठे अध्याये स करनेवाले गृहस्थ के लिये भी हठे अध्यायमें कहा हुआ योग विहित हो, तो वह योगसे भ्रष्ट हुआ योगविभ्रष्टः अपि कर्मगति कर्मफलं पामोति भी कर्मोंकी गतिको अर्थात् कोंके फलको तो प्राप्त होता ही है, इसलिये उसके नाशकी आशंका इति तस्य नाशाशङ्का अनुपपन्ना स्यात् । युक्तियुक्त नहीं रह जाती। । अवश्यं हि कृतं कर्म काम्यं नित्यं वा क्योंकि नित्य होनेके कारण मोक्ष तो कोसे मोक्षस्य नित्यत्वाद् अनारम्यत्वे स्वं फलम् | प्राप्त हो ही नहीं सकता। इसलिये किये हुए काम्य आरभते एव। या नित्यकर्म अपने फलका आरम्भ अवश्य ही करेंगे। नित्यस्य च कर्मणो वेदप्रमाणावबुद्धत्वात् नित्यकर्म भी वेदप्रमाणजनित होनेके कारण फलेन भवितव्यम् इति अवोचाम अन्यथा | अवश्य ही फल देनेवाले होते हैं, नहीं तो बेदको निरर्थक माननेका प्रसङ्ग आ जाता है, यह पहले कह वेदस्य आनर्थक्यप्रसङ्गाद् इति । न च चुके हैं। कोंके नाशक किसी हेतुकी कोई कर्मणि सति उभयविभ्रष्टवचनम् अर्थवत् सम्भावना न होनेके कारण कर्मोके रहते हुए (गृहस्थ- कर्मणो विभ्रंशकारणानुपपत्तेः। को ) उभयभ्रष्ट कहना युक्तियुक्त नहीं हो सकता । कर्म कृतम् ईश्वरे संन्यस्य इति अतः कर्तरि कर्म फलं न आरभते इति चेत् । यू०-यदि ऐसा मानें कि 'वे कर्म ईश्वरमें अर्पण करके' किये गये हैं, इसलिथे वे कर्ताके लिये फलका आरम्भ नहीं करेंगे। न, ईश्वरे संन्यासस्य अधिकतरफल- उ०-यह ठीक नहीं, क्योंकि ईश्वरमें अर्पण किये हुए कर्म तो और भी अधिक फलदायक हेतुत्वोपपत्तेः। होने चाहिये।