पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१७३

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Homepage शांकरभाष्य अध्याय ६ १५७ मोक्षाय एव इति चेत् स्वकर्मणां कृतानाम् । पू०-यदि ऐसे माने कि वे कर्म केवल मोक्ष- ईश्वरे न्यासो मोक्षाय एव न फलान्तराय के लिये ही होते हैं अर्थात् अपने किये हुए कर्मोंका योगसहितो योगात् च विभ्रष्ट इति अतः तं प्रति जो ईश्वरमें योगसहित (समतापूर्वक) संन्यास है वह नाशाशङ्का युक्ता एव इति चेत् ।। केवल मोक्षके लिये ही होता है दूसरे फलके लिये नहीं और वह उस योगसे (समत्वसे) भ्रष्ट हो गया है, अतः उसके लिये नाशकी आशंका ठीक ही है। न, 'एकाकी यतचित्तात्मा निराशरिपरिग्रहः' उ०-यह भी ठीक नहीं, क्योंकि 'एकाको यत- 'ब्रह्मचारिवते स्थितः इति कर्मसंन्यासविधानात् । चित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः 'ब्रह्मचारि- व्रते स्थितः' आदि वचनोंद्वारा कर्म-संन्यासका विधान किया गया है। न च अत्र ध्यानकाले स्त्रीसहायत्वाशङ्का यहाँ ध्यान कालमें स्त्रीकी सहायताकी तो कोई येन एकाक्रित्वं विधीयते । न च गृहस्थस्य आशंका नहीं होती कि जिससे गृहस्थके लिये 'निराशीरपरिग्रहः' इत्यादिवचनम् अनुकूलम् ।। एकाकीका विधान किया जाता । निराशीरपरिग्रहः' उभयविभ्रष्टप्रश्नानुपपत्ते च । इत्यादि वचन भी गृहस्थ के अनुकूल नहीं है। तथा उभयभ्रष्ट-विषयक प्रश्नकी उपपत्ति न होने के कारण भी (उपर्युक्त मान्यता) ठीक नहीं है । 'अनाश्रित' इति अनेन कर्मिण एव पू० -'अनाश्रितः' इस श्लोकसे कर्म करनेवाले- संन्यासित्वं योगित्वं च उक्तं प्रतिषिद्धं च को ही संन्यासी और योगी कहा है, अग्नि- निरने अक्रियस्य च संन्यासित्वं योगित्वं च रहित और क्रियारहितके संन्यासित्व और योगित्वका इति चेत् । | निषेध किया है। न, ध्यानयोगं प्रति बहिरङ्गस्य सतः कर्मणः उ०-यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि यह फलाकाङ्क्षासंन्यासस्तुतिपरत्वात् । श्लोक केवल ध्यानयोगके लिये बहिरंग साधनरूप कोंके फलाकांक्षा-सम्बन्धी संन्यासकी स्तुति करनेके निमित्त ही है। न केवलं निरनिः अक्रिय एव संन्यासी केवल अग्निरहित और क्रियारहित ही योगी च किं तर्हि कर्मी अपि कर्मफलासङ्गं संन्यासी और योगी होता है, ऐसा नहीं, किन्तु जो संन्यस्य कर्मयोगम् अनुतिष्ठन् सत्त्वशुद्धयर्थं स कोई कर्म करनेवाला भी कर्मफल और आसक्तिको संन्यासी च योगी च भवति इति स्तूयते । छोड़कर अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये कर्मयोगमें स्थित है वह भी संन्यासी और योगी है, इस प्रकार कर्मयोगीकी स्तुति की गयी है । न च एकेन वाक्येन कर्मफलासङ्गसंन्यास- एक ही वाक्यसे कर्मफलविषयक आसक्तिके स्तुतिः चतुर्थाश्रमप्रतिषेधः च उपपद्यते । त्यागरूप संन्यासकी स्तुति और चतुर्थ आश्रमका प्रतिषेध नहीं बन सकता