पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

श्रीमद्भगवद्गीता न च प्रसिद्धं निरग्नेः अक्रियस्य परमार्थ- अग्निरहित और क्रियारहित वास्तविक संन्यासिनः श्रुतिस्मृतिपुराणोतिहासयोग- संन्यासीका संन्यासित्व और योगित्व जो श्रुति, स्मृति, शास्त्रविहितं संन्यासित्वं योगित्वं च प्रतिषेधति । पुराण, इतिहास और योगशास्त्रसे विहित तथा सर्वत्र प्रसिद्ध है, उसका भगवान् प्रतिषेध नहीं करते, क्योंकि भगवान् । स्ववचनविरोधात् च । । इससे भगवान् के अपने कथनमें भी विरोव आता है। 'सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्य' 'नैव कुर्वन अभिप्राय यह है कि 'सव कौंको मनले छोड़कर' कारयन् आस्ते' 'मौनी संतुष्टो येन केनचित्' । 'न करता हुआ न करवाता हुआ रहता है. मौन 'अनिकेतः स्थिरमतिः' 'विहाय कामान्यः भाववाला जिस किस प्रकारसे भी सदा संतुष्ट' 'बिना घरद्वारवालास्थिरबुद्धि "जापुरूष समस्त सर्वान्पुमांश्चराति निःस्पृहः' 'सर्वारम्भपरित्यागी' कामनाओंको छोड़कर निस्पृह भावसे विचरता इति च तत्र तत्र भगवता स्ववचनानि दर्शितानि है' 'समस्त आरम्भोंका त्यागी' इस प्रकार जगह- तैः विरुध्येत चतुर्थाश्रमप्रतिषेधः। जगह भगवान्ने जो अपने बचन प्रदर्शित किये हैं, उनसे चतुर्थ आश्रमके प्रतिषेधका विरोध है । तस्मात् मुनेः योगम् आरुरुक्षोः प्रतिपन्न- इसलिये ( यह सिद्ध हुआ कि) जो गृहस्थाश्रम- गार्हस्थ्यस्य अग्निहोत्रादि फलनिरपेक्षम् | में स्थित पुरुष योगारूढ़ होने की इच्छाबाला और अनुष्ठीयमानं ध्यानयोगारोहणसाधनत्वं | मननशील है, उसके फल न चाहकर अनुष्ठान सत्त्वशुद्धिद्वारेण प्रतिपद्यते । किये हुए अग्निहोत्रादि कर्म अन्तःकरणकी शुद्धिद्वारा ध्यानयोगमें आरूढ होनेके साधन बन सकते हैं । इति स संन्यासी च योगी च इति स्तूयते-- इसी भावसे 'वह संन्यासी और योगी हैं। इस प्रकार उसकी स्तुति की जाती है..- भगवान् श्रीकृष्ण बोले- श्रीभगवानुवाच- अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः । स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः॥१॥ अनाश्रितो न आश्रितः अनाश्रितः किं कर्मफलं जिसने आश्रय नहीं लिया हो, वह अनाश्रित कर्मणः फलं कर्मफलं यत् तद् अनाश्रितः | है, किसका ? कर्मफलका अर्थात् जो कर्मोके फलका कर्मफलतृष्णारहित इत्यर्थः। आश्रय न लेनेवाला-कर्मफलकी तृष्णासे रहित है। यो हि कर्मफलतृष्णावान् स कर्मफलम् क्योंकि जो कर्मफलकी तृष्णावाला होता है आश्रितो भवति अयं तु तद्विपरीतः अतः वही कर्मफलका आश्रय लेता है, यह उससे विपरीत अनाश्रितः कर्मफलम् । है, इसलिये कर्मफलका आश्रय लेनेबाला नहीं है । एवंभूतः सन् कार्य कर्तव्यं नित्यं काम्य- ऐसा ( कर्मफलके आश्रयसे रहित ) होकर जो विपरीतम् अग्निहोत्रादिकं करोति निर्वर्तयति, पुरुष कर्तव्यकोंको अर्थात् कान्यकोंसे विपरीत नित्य अग्निहोत्रादि कोको करता है,