पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१७६

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श्रीमद्भगवद्गीता यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव । न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन ॥२॥ यं सर्वकर्मतत्फलपरित्यागलक्षणं परमार्थ- श्रुति-स्मृतिके ज्ञाता पुरुष सर्वकर्म और संन्यासम् इति प्राडुः श्रुतिस्मृतिविदः, योगं | उनके फलके त्यागरूप जिस भावको वास्तविक कर्मानुष्ठानलक्षणं तं परमार्थसंन्यासं विद्धि संन्यास कहते हैं, हे पाण्डव ! कर्मानुष्ठानरूप योगको (निष्काम कर्मयोगको) भी तृ वहो वास्तविक जानीहि हे पाण्डव । संन्यास जान।

कर्मयोगस्य प्रवृत्तिलक्षणस्य तद्विपरीतेन प्रवृत्तिरूप कर्मयोगकी उससे विपरीत निवृत्तिरूप निवृत्तिलक्षणेन परमार्थसंन्यासेन कीदृशं परमार्थ-संन्यासके साथ कैसी समानता स्वीकार सामान्यम् अङ्गीकृत्य तद्भाव उच्यते इति करके एकता कही जाती है ? ऐसा प्रश्न होनेपर यह कहा जाता है- अपेक्षायाम् इदम् उच्यते- अस्ति परमार्थसंन्यासेन सादृश्यं कर्तृद्वारक परमार्थ-संन्यासके साथ कर्मयोगकी कर्तविषयक कर्मयोगस्य । यो हि परमार्थसंन्यासी स त्यक्त- समानता है । क्योंकि जो परमार्थ-संन्यासी है सर्वकर्मसाधनतया सर्वकर्मतत्फलविषयं संकल्पं वह सब कर्मसाधनोंका त्याग कर चुकता है इसलिये सब कर्मोका और उनके फलविषयक संकल्पोंका, प्रवृत्तिहेतुकामकारणं संन्यस्यति । अयम् अपि | जो कि प्रवृत्तिहेतुक कामके कारण हैं, त्याग करता कर्मयोगी कर्म कुर्वाण एवं फलविषयं संकल्पं है । और यह कर्मयोगी भी कर्म करता हुआ संन्यस्यति इति एतम् अर्थ दर्शयन् आह-~- फलविषयक संकल्पोंका त्याग करता ही है (इस प्रकार दोनोंकी समानता है ) इस अभिप्रायको दिखलाते हुए कहते हैं- न हि यस्माद् असंन्यस्तसंकल्पः असंन्यस्तः जिसने फलविषयक संकल्पोंका यानी इच्छाओं- अपरित्यक्तः फलविषयः संकल्पः अभिसंधिः का त्याग न किया हो, ऐसा कोई भी कर्मी, योगी येन सः असंन्यस्तसंकल्पः, कश्चन कश्चिद् अपि नहीं हो सकता । अर्थात् ऐसे पुरुषका चित्त कर्मी योगी समाधानवान् भवति, न संभवति समाधिस्थ होना सम्भव नहीं है। क्योंकि फलका संकल्प ही चित्तके विक्षेपका कारण है। इत्यर्थः । फलसंकल्पस्य चित्तविक्षेपहेतुस्वात् । तस्माद् यः कश्चन कर्मी संन्यस्तफलसंकल्पो इसलिये जो कोई कर्मी फलविषयक संकल्पोंका भवेत् स योगी समाधानवान् अविक्षिप्तचित्तो त्याग कर देता है वही योगी होता है। अभिप्राय भवेत् चित्तविक्षेपहेतोः फलसंकल्पस्य संन्यस्त- संकल्प है उसके त्यागसे ही मनुष्य सभाधानयुक्त यह है कि चित्तविक्षेपका कारण जो फलविषयक स्वाद् इति अभिप्रायः यानी चित्तविक्षेपसे रहित योगी होता है। -