पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१७७

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शांकरभाष्य अध्याय ६ एवं परमार्थसंन्यासकर्मयोगयो कद्वारक इस प्रकार परमार्थ-संन्यासकी और कर्मयोगकी संन्याससामान्यम् अपेक्ष्य 'यं संन्यासमिति कर्ताक भावसे संबन्ध रखनेवाली जो त्यागविषयक समानता है, उसकी अपेक्षासे ही कर्मयोगकी स्तुति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव' इति कर्मयोगस्य करनेके लिये यं संन्यासमिति प्रादुर्योगं तं विद्धि स्तुत्यर्थं संन्यासत्वम् उक्तम् ॥ २॥ पाण्डव' इस श्लोकमें उसे संन्यास बतलाया है ॥२॥ अधुना कर्मयोगस्य साधनम् उच्यते । ध्यानयोगस्य फलनिरपेक्षा कर्मयोगो फलेच्छासे रहित जो कर्मयोग है वह ध्यानयोगका बहिरङ्गं साधनम् इति तं संन्यासत्वेन स्तुत्वा बहिरंग साधन है इस उद्देश्यसे उसकी संन्यासरूपसे ध्यानयोगसाधनत्वं स्तुति करके अब यह भाव दिखलाते हैं कि कर्मयोग, दर्शयति- ध्यानयोगका साधन है। आरुरुक्षोर्मुनेयोग कर्म कारणभुच्यते । योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥३॥ आरुरुक्षोः आरोढुम् इच्छतः अनारूढस्य जो ध्यानयोगमें आरूढ़ नहीं है-ध्यानयोगमें ध्यानयोगे अवस्थातुम् अशक्तस्य एव इत्यर्थः, स्थित नहीं रह सकता है, ऐसे योगारूढ़ होनेकी कस्य आरुरुक्षोः, मुनेः कर्मफलसंन्यासिन इच्छावाले मुनि अर्थात् कर्मफलत्यागी पुरुषके इत्यर्थः । किम् आरुरुक्षोः योगं कर्म कारणं लिये ध्यानयोगपर आरूढ़ होनेका साधन 'कर्म' बतलाया गया है। योगारूढस्य पुनः तस्य एव शम उपशमः तथा वहीं जब योगारूढ़ हो जाता है तो उसके सर्वकर्मभ्यो निवृत्तिः कारणं योगारूढत्वस्य , लिये योगारूढ़ताका ( ध्यानयोगमें सदा स्थित साधनम् उच्यते इत्यर्थः । रहनेका) साधन शम-उपशम यानी 'सर्व कर्मोंसे निवृत्त होना' बतलाया गया है। यावद् यावत् कर्मभ्य उपरमते तावत् (मनुष्य) जितना-जितना कर्मोंसे उपरत होता तावत् निरायासस्य जितेन्द्रियस्य चित्तं जाता है, उतना-उतना ही उस परिश्रमरहित समाधीयते । तथा सति स झटिति योगारूढो जितेन्द्रिय पुरुषका चित्त समाहित होता जाता है। वति । ऐसा होनेसे वह झटपट योगारूढ़ हो जाता है। तथा च उक्तं व्यासेन- व्यासजीने भी यही कहा है कि 'ब्राह्मणके लिये नैतादृशं ब्राह्मणस्यास्ति वित्तं यथैकता समता दूसरा ऐसा कोई धन नहीं है जैसा कि एकता, च । शीलं स्थितिर्दण्डनिधानमार्जवं समता, सत्यता, शील, स्थिति, अहिंसा, आर्जव ततस्ततश्चोपरमः क्रियाभ्यः॥' (महाभारत शान्ति- और उन-उन क्रियाओंसे उपराम होना है ॥३॥ पर्व १७५ ॥ ३७) इति ॥३॥ सत्यता