पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१७९

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शांकरभाष्य अध्याय न्यायात् च । न हि सर्वसंकल्पसंन्यासे | युक्तिसे भी यही बात सिद्ध होती है । क्योंकि कश्चित् स्पन्दितुम् अपि शक्तः सब संकल्पोंका त्याग कर देनेपर तो कोई जरा-सा हिल भी नहीं सकता। तस्मात् सर्वसंकल्पसंन्यासी इति बचनात् सुतरां 'सर्वसंकल्पसंन्यासी' कहकर भगवान् सर्वान कामान् सर्वाणि कर्माणि च त्याजयति समस्त कामनाओंका और समस्त कोंका त्याग कराते हैं !!४॥ भगवान् ॥४॥ ER - यदा एवं योगारूढः तदा तेन आत्मा जब मनुष्य इस प्रकार योगारूढ़ हो जाता है आत्मना उद्धृतो भवति संसाराद् अनर्थवाताद् ! तब वह अनथोंके समूह इस संसारसमुद्रसे स्वयं अपना उद्धार कर लेता है, इसलिये- उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥५॥ उद्धरेत् संसारसागरे निमगम् आत्मना आत्मानं संसार-सागरमें डूबे पड़े हुए अपने-आपको उस तत उद् ऊर्ध्व हरेद् उद्धरेद् योगारूडतां संसारसमुद्रसे आत्म-बलके द्वारा ऊँचा उठा लेना चाहिये अर्थात् योगारूढ़ अवस्थाको प्राप्त कर लेना आपादयेद् इत्यर्थः । चाहिये । म न आत्मानम् अवसादयेत् न अधो नयेत् न अपना अधःपतन नहीं करना चाहिये अर्थात् अधो गमयेत् । अपने आत्माको नीचे नहीं गिरने देना चाहिये । आत्मा एव हि यस्माद् आत्मनो बन्धुः । न क्योंकि यह आप ही अपना बन्धु है। दूसरा हि अन्यः कश्चिद् बन्धुः यः संसारमुक्तये कोई (ऐसा ) बन्धु नहीं है जो संसारसे मुक्त करने- वाला हो । प्रेमादि भाव बन्धनके स्थान होनेके भवति । बन्धुः अपि तावद् मोक्षं प्रति प्रतिकूल कारण सांसारिक बन्धु भी ( वास्तवमें ) मोक्षमार्गका एव स्नेहादिवन्धनायतनत्वात् तस्माद् युक्तम् तो विरोधी ही होता है । इसलिये निश्चयपूर्वक यह अवधारणम् ‘आत्मा एव हि आत्मनो बन्धुः इति। कहना ठीक ही है कि, आप ही अपना बन्धु है । आत्मा एव रिपुः शत्रुः यः अन्यः अपकारी तथा आप ही अपना शत्रु है। अनिष्ट करनेवाला बाह्य शत्रु है वह भी अपना बाह्यः शत्रुः सः अपि आत्मप्रयुक्त एव इति, ही बनाया हुआ होता है, इसलिये आप ही अपना युक्तम् एव अवधारणम् आत्मा एव रिपुः शत्रु है, इस प्रकार केवल अपनेको ही शत्रु बतलाना आत्मनः इति ॥५॥ भी ठीक ही है ॥५॥ कोई दूसरा