पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१८४

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श्रीमद्भगवद्गीता स च अन्तःकरणसमाधानापेक्षो विवक्षितः।। वह ( इस तरह दृष्टिस्थापन करना ) भी अन्त:- करणके समाधानके लिये आवश्यक होनेके कारण स्वनासिकाग्रसंप्रेक्षणम् एव चेद् विवक्षितं मनः ही अभीष्ट है । क्योंकि यदि अपनी नासिकाके अग्रभागको देखनेका ही विधान माना जाय तो तत्र एव समाधीयते न आत्मनि । फिर मन वहीं स्थित होगा, आत्मामें नहीं। आत्मनि हि मनसः समाधानं वक्ष्यति परन्तु ( आगे चलकर ) 'आत्मसंस्थं मनः 'आत्मसंस्थं मनः कृत्वा' इति । तस्माद् इवशब्द- कृत्वा' इस पदसे आत्मामें ही मनको स्थित करना लोपेन अक्ष्णोः दृष्टिसंनिपात एव संप्रेक्ष्य बतलायेंगे । इसलिये 'इव' शब्दके लोपद्वारा नेत्रों को दृष्टिको नासिकाके अग्रभागपर लगाना ही 'संप्रेक्ष्य' इति उच्यते । इस पदसे कहा गया है। दिशः च अनवलोकयन् दिशां च अवलोकनम् । इस प्रकार (नेत्रोंकी दृष्टिको नासिकाके अग्रभाग- पर लगाकर ) तथा अन्य दिशाओंको न देखता हुआ अर्थात् बीच-बीचमें दिशाओंकी ओर दृष्टि न डालता अन्तरा अकुर्वन् इति एतत् ॥ १३ ॥ हुआ ॥ १३॥ तथा- कि च-- प्रशान्तात्मा विगतभीब्रह्मचारिव्रते स्थितः । मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥ १४ ॥ प्रशान्तात्मा प्रकर्येण शान्त आत्मा अन्त:- प्रशान्तात्मा--अच्छी प्रकारसे शान्त हुए अन्त:- करणं यस्य सः अयं प्रशान्तात्मा विगतभीः करणवाला, विगतभी--निर्भय और ब्राह्मचारियों के व्रतमें स्थित हुआ अर्थात् ब्रह्मचर्य, गुरुसेवा, भिक्षा- विगतभयो ब्रह्मचारिवते स्थितो ब्रह्मचारिणो भोजन आदि जोब्रह्मचारीके व्रत हैं उनमें स्थित हुआ व्रतं ब्रह्मचर्य गुरुशुश्रूषाभिक्षाभुक्त्यादि तसिन् उनका अनुष्ठान करनेवाला होकर और मनका स्थितः तदनुष्ठाता भवेद् इत्यर्थः । किं च संयम करके अर्थात् मनकी वृत्तियोंका उपसंहार मनः संयम्य मनसो वृत्तीः उपसंहृत्य करके तथा मुझमें चित्तवाला अर्थात् मुझ परमेश्वर- में ही जिसका चित्त लग गया है ऐसा मञ्चित्त होकर इति एतत् मच्चित्तो मयि परमेश्वरे चित्तं यस्य | तथा समाहितचित्त होकर और मुझे ही सर्वश्रेष्ठ स अयं मञ्चित्तो युक्तः समाहितः सन् आसीत माननेवाला, अर्थात् मैं ही जिसके मतमें सबसे श्रेष्ठ उपविशेत् मत्परः अहं परो यस्य सः अयं मत्परः । । हूँ, ऐसा होकर बैठे । भवति कश्चिद् रागी स्त्रीचित्तो न तु स्त्रियम् । कोई स्त्रीप्रेमी स्त्रीमें चित्तवाला हो सकता है परन्तु वह स्त्रीको सबसे श्रेष्ठ नहीं समझता । तो एव परत्वेन गृह्णाति, किं तर्हि राजानं महादेवं किसको समझता है ! वह राजाको या महादेवको स्त्रीकी अपेक्षा श्रेष्ठ समझता है; परन्तु यह साधक तो वा अयं तु मचित्तो मत्परः च ॥१४॥ चित्त भी मुझमें ही रखता है और मुझे ही सबसे अधिक श्रेष्ठ भी समझता है ॥१४॥