पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१८५

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शांकरभाष्य अध्याय ६ अथ इदानीं योगफलम् उच्यते- अब योगका फल कहा जाता है- युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः । शान्ति निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥ १५ ॥ युञ्जन् समाधानं कुर्वन् एवं यथोक्तेन नियत मनवाला थोगी अर्थात् जिसका मन विधानेन सदा आत्मानं योगी नियतमानसो नियतं जीता हुआ है ऐसा योगी उपर्युक्त प्रकारसे सदा संयतं मानसं मनो यस्य सः अयं नियत- आत्माका समाधान करता हुआ अर्थात् मनको परमात्मामें स्थिर करता-करता मुझमें स्थित मानसः, शान्तिम् उपरति निर्वाणपरमां निर्वाणं निर्वाणदायिनी शान्तिको–उपरतिको पाता है मोक्षः तत्परमा निष्ठा यस्याः शान्तेः सा अर्थात् जिस शान्तिकी परमनिष्ठा अन्तिम स्थिति निर्वाणपरमा तां निर्वाणपरमां मत्संस्थां मोक्ष है एवं जो मुझमें स्थित है—मेरे अधीन है मदधीनाम् अधिगच्छति प्रामोति ॥१५॥ ऐसी शान्तिको प्राप्त होता है ॥ १५ ॥ न इदानीं योगिन आहारादिनियम उच्यते- अब योगीके आहार आदिके नियम कहे जाते हैं- नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः । न चातिवप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥ १६ ॥ न अत्यश्नत आत्मसंमितम् अन्नपरिमाणम् अधिक खानेवालेका अर्थात् अपनी शक्तिका उल्लंघन करके शक्तिसे अधिक भोजन करनेवालेका अतीत्य अश्नतः अत्यश्नतो न योगः अस्ति, योग सिद्ध नहीं होता और बिल्कुल न खानेवालेका च एकान्तम् अनश्नतो योगः अस्ति 'यदु ह वा भी योग सिद्ध नहीं होता, क्योंकि यह श्रुति है कि 'जो अपने शरीरकी शक्तिके अनुसार अन्न खाया आत्मसंमितमन्नं तदवति तन हिनस्ति, यद्भूयो जाता है वह रक्षा करता है, वह कष्ट नहीं देता हिनस्ति तद्यत्कनीयो न तदवति' (शतपथ ) (बिगाड़ नहीं करता) जो उससे अधिक होता है वह कष्ट देता है और जो प्रमाणसे कम होता है इति श्रुतेः। वह रक्षा नहीं करता। तस्माद् योगी न आत्मसंमिताद् अन्नाद् इसलिये योगीको चाहिये कि अपने लिये जितना अधिकं न्यूनं वा अश्नीयात् । उपयुक्त हो उससे कम या ज्यादा अन्न न खाय । अथ वा योगिनो योगशास्त्रे परिपठिताद् अथवा यह अर्थ समझो कि योगीके लिये योग- अन्नपरिमाणाद् अतिमात्रम् अश्नतो योगो न शास्त्रमें बतलाया हुआ जो अन्नका परिमाण है उससे अधिक खानेवालेका योग सिद्ध नहीं होता । २२.