पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

शांकरभाष्य अध्याय ६ १७१ यदा विनियत चित्तं विशेषेण नियतं संघतम् वशमें किया हुआ चित्त यानी विशेषरूपसे एकाग्रताम् आपनं चित्तम्, हित्वा बाह्यचिन्ताम् एकाग्रताको प्राप्त हुआ चित्त, जब बाह्य चिन्तनको आत्मनि एव केवले अवतिष्ठते स्वात्मनि स्थिति छोड़कर केवल आत्मामें ही स्थित होता है-अपने लभते इत्यर्थः। खरूपमें स्थिति लाभ करता है। निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो निर्गता दृष्टादृष्ट- तव-उस समय सब भोगोंकी लालसासे रहित विषयेभ्यः स्पृहा तृष्णा यस्य योगिनः स हुआ योगी अर्थात् दृष्ट और अदृष्ट समस्त भोगोंसे जिसकी तृष्णा नष्ट हो गयी है ऐसा योगी युक्त युक्तः समाहित इति उच्यते तदा तस्मिन् है-समाधिस्थ ( परमात्मामें स्थितिवाला ) है, ऐसे काले ॥१८॥ कहा जाता है ।॥ १८॥ तस्य योगिनः समाहितं यत् चित्तं तस्य उस योगीका जो समाधिस्थ चित्त है उसकी उपमा उच्यते- उपमा कही जाती है- यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता । योगिनो यतचित्तस्य गुञ्जतो योगमात्मनः ॥ १६ ॥ यथा दीपः प्रदीपो निवातस्थो निवाते बात- जैसे वायुरहित स्थानमें रखा हुआ दीपक वर्जिते देशे स्थितो न इङ्गते न चलति, विचलित नहीं होता, वही उपमा आत्मध्यानका सा उपमा उपमीयते अनया इति उपमा अभ्यास करनेवाले—समाधिमें स्थित हुए योगीके योगज्ञैः चित्तप्रचारदर्शिभिः स्मृता चिन्तिता ।। जीते हुए अन्तःकरणकी, चित्त-गतिको प्रत्यक्ष योगिनो यतचित्तस्य संयतान्तःकरणस्य युनतो योगम् अनुतिष्ठत आत्मनः समाधिम् अनुतिष्ठत देखनेवाले योगवेत्ता पुरुषोंने मानी है । जिससे किसी- इत्यर्थः ॥१९॥ की समानता की जाय उसका नाम उपमा है ॥१९॥ एवं योगाभ्यासबलादू एकाग्रीभूतं निवात- इस प्रकार योगाभ्यासके बलसे वायुरहित स्थानमें प्रदीपकल्पं सत्- रखे हुए दीपककी भाँति एकान किया हुआ यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया। यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥ २० ॥ यत्र यस्मिन् काले उपरमते चित्तम् उपरति योगसाधनसे निरुद्ध किया हुआ, सब ओरसे गच्छति निरुद्धं सर्वतो निवारितप्रचारं योगसेवया चञ्चलतारहित किया हुआ चित्त,—जिस समय योगानुष्ठानेन, यत्र च एव यस्मिन् च काले उपरत होता है-उपरतिको प्राप्त होता है । तथा जिस कालमें समाधिद्वारा अति निर्मल ( स्वच्छ) हुए आत्मना समाधिपरिशुद्धेन अन्त:करणेन आत्मानं अन्तःकरणसे परम चैतन्य ज्योतिःवरूप आत्माका परं चैतन्यज्योतिस्वरूपं पश्यन् उपलभमानः साक्षात् करता हुआ वह अपने आपमें ही सन्तुष्ट स्वे एव आत्मनि तुष्यति तुष्टिं भजते ॥२० हो जाता हैं-तृप्ति लाभ कर लेता है ॥२०॥