पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१९२

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श्रीमद्भगवद्गीता सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः । सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥ ३१ ॥ इति एतत् पूर्वश्लोकार्थ सम्यग्दर्शनम् अनूद्य (एकत्य-भावमें स्थित हुआ जो पुरुष सम्पूर्ण तत्फलं मोक्षः अभिधीयते । सर्वथा सर्वप्रकारैः भूतोंमें स्थित मुझ वासुदेवको भजता है ) इस प्रकार पहले श्लोकके अर्थरूप यथार्थ ज्ञानका वर्तमानः अपि सम्यग्दर्शी योगी मयि वैष्णवे इस आधे श्लोकसे अनुवाद करके उसके फलस्वरूप परमे पदे वर्तते नित्यमुक्त एव स न मोक्षं मोक्षका विधान करते हैं-वह पूर्ण ज्ञानी---योगी सत्र प्रकारसे बर्तता हुआ भी वैष्णव परमपदरूप मुझ प्रति केनचित् प्रतिबध्यते इत्यर्थः ॥३१॥ परमेश्वरमें ही बर्तता है अर्थात् वह सदा मुक्त ही है- उसके मोक्षको कोई भी रोक नहीं सकता ॥३१॥ किं च अन्यत्- तथा और भी कहते हैं- आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः॥ ३२ ॥ आत्मौपम्येन आत्मा स्वयम् एव उपमीयते आत्मा अर्थात् खयं आप, और जिसके द्वारा [अनया ] इति उपमा तस्या उपमाया भाव उपमित किया जाय वह उपमा, उस उपमाके भावको औपम्यम् । (सादृश्यको) औपन्य कहते हैं । तेन आत्मौपम्येन सर्वत्र सर्वभूतेषु समं तुल्यं हे अर्जुन ! उस आत्मौपम्यद्वारा अर्थात् अपनी पश्यति यः अर्जुन । सदशतासे जो योगी सर्वत्र-सब भूतोंमें तुल्य देखता है। स च किं समं पश्यति इति उच्यते- वह तुल्य क्या देखता है ? सो कहते हैं- यथा मम सुखम् इष्टं तथा सर्वप्राणिनां सुखम् । जैसे मुझे सुख प्रिय है वैसे ही सभी प्राणियों- अनुकूलम् । वा शब्दः चार्थे । यदि वा यत् च | को सुख अनुकूल है और जैसे दुःख मुझे अप्रिय--- दुःख मम प्रतिकूलम् अनिष्टं यथा तथा सर्व प्रतिकूल है वैसे ही वह सब प्राणियोंको अप्रिय---- प्रतिकूल है इस प्रकार जो सब प्राणियोंमें अपने प्राणिनां दुःखम् अनिष्टं प्रतिकूलम् इति एवम् समान ही सुख और दुःखको तुल्यभावसे अनुकूल आत्मौपम्येन सुखदुःखे अनुकूलप्रतिकूले और प्रतिकूल देखता है, किसीके भी प्रतिकूल तुल्यतया सर्वभूतेषु समं पश्यति, न कस्यचित् | आचरण नहीं करता, यानी अहिंसक है। यहाँ 'वा' प्रतिकूलम् आचरति अहिंसक इत्यर्थः । शब्दका प्रयोग 'च' के अर्थमें हुआ है। य एवम् अहिंसका सम्यग्दर्शननिष्ठः स योगी जो इस प्रकारका अहिंसक पुरुष पूर्ण ज्ञानमें परम उत्कृष्टो मतः अभिप्रेतः सर्वयोगिनां स्थित है वह योगी अन्य सब योगियोंमें परम उत्कृष्ट मध्ये ॥३२॥ माना जाता है ॥३२॥