पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१९४

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श्रीमद्भगवद्गीता एवम् एतद् यथा अवीषि- श्रीभगवान् बोले कि जैसे तू कहता है यह श्रीभगवानुवाच ठीक ऐसा ही है--- असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् । अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ ३५॥ असंशयं न अस्ति संशयो मनो दुर्निग्रहं चलम् । हे महाबाहो! मन चञ्चल और कठिनतासे वशमें इत्यत्र हे महाबाहो । किन्तु अभ्यासेन तु होनेवाला है इसमें ( कोई ) सन्देह नहीं । किन्तु

अभ्याससे अर्थात् किसी चित्तभूमिमें एक समान

अभ्यासो नाम चित्तभूमौ कस्यांचित् समान- वृत्तिकी वारंवार आवृत्ति करनेसे और दृष्ट तथा प्रत्ययावृत्तिः चित्तस्य । वैराग्यं नाम दृष्टादृष्टेष्ट- अदृष्ट प्रिय भोगोंमें बारंबार दोपदर्शनके अभ्यास- भोगेषु दोपदर्शनाभ्यासाद् वैतृष्ण्यं तेन च द्वारा उत्पन्न हुए अनिच्छारूप वैराग्यसे चित्तके विक्षेपरूप प्रचार (चञ्चलता) को रोका जा सकता वैराग्येण गृह्यते विक्षेपरूपःप्रचारः चित्तस्य । एवं है। अर्थात् इस प्रकार उस मनका निग्रह-निरोध तत् मनो गृह्यते निगृह्यते निरुध्यते इत्यर्थः।३५किया जा सकता है ॥ ३५ ॥ यः पुनः असंयतात्मा तेन-- परन्तु जिसका अन्तःकरण वशमें किया हुआ नहीं है उस- असंयतात्मना योगो दुष्पाप इति मे मतिः । वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥ ३६॥ असंयतात्मना अभ्यासवैराग्याभ्याम् असंयत मनको वशमें न करनेवाले पुरुषद्वारा अर्थात् आत्मा अन्तःकरणं यस्य सः अयम् असंयतात्मा जिसका अन्तःकरण अभ्यास और वैराग्यद्वारा संयत तेन असंयतात्मना योगो दुष्प्रापो दुःखेन प्राप्यते किया हुआ नहीं है ऐसे पुरुषद्वारा योग प्राप्त किया जाना कठिन है, अर्थात् उसको योग कठिनतासे इति मे मतिः । प्राप्त हो सकता है-यह मेरा निश्चय है। यः तु पुनः वश्यात्मा अभ्यासवैराग्याभ्यां परन्तु जो खाधीन मनवाला है-जिसका मन वश्यत्वम् आपादित आत्मा मनो यस्य सः अयं अभ्यासवैराग्यद्वारा वशमें किया हुआ है और जो वश्थात्मा तेन वश्यात्मना तु यतता भूयः अपि | फिर भी बारंबार यत्न करता ही जाता है ऐसे प्रयत्नं कुर्वता शक्यः अवाप्तुं योग उपायतो | पुरुषद्वारा पूर्वोक्त उपायोंसे यह योग प्राप्त किया यथोक्ताद् उपायात् ॥३६॥ जा सकता है ।। ३६ ॥