पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२००

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THIGANJ Shabad. सप्तमोऽध्यायः 'योगिनामपि सर्वेषां भद्गतेनान्तरात्मना । 'योगिनामपि सर्वेषां मक्तेनान्तरात्मना । श्रद्धावान्मजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥' श्रद्धावान्भजते यो मांस मे युक्ततमो मतः॥' इति प्रश्नबीजम् उपन्यस्य स्वयम् एव इस श्लोकद्वारा छठे अध्यायके अन्तमें प्रश्नके बीजकी स्थापना करके फिर स्वयं ही ऐसा मेरह ईदृशं मदीयं तत्त्वम् एवं मद्तान्तरात्मा खाद् तत्त्व है। इस प्रकार मुझमें स्थित अन्तरात्मावाला हो इति एतद् विवक्षुः-- जाना चाहिये' इत्यादि बातोंका वर्णन करनेकी श्रीभगवानुवाच- इच्छावाले भगवान् बोले------ मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः । असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥१॥ मयि वक्ष्यमाणविशेषणे परमेश्वरे आसक्तं आगे कहे जानेवाले विशेषणोंसे युक्त मुझ परमेश्वर- में ही जिसका मन आसक्त हो, वह 'मग्यासक्तमना' मनो यस्य स मय्यासक्तमना हे पार्थ, योग युञ्जन् है और मैं परमेश्वर ही जिसका (एकमात्र) अवलम्बन मनासमाधानं कुर्वन् मदाश्रयः अहम् एव परमेश्वर । हूँ वह 'मदाश्रय' है, हे पार्थ ! ऐसा 'मय्यासक्तमना' और 'मदाश्रय होकर तू, योगका साधन करता हुआ आश्रयो यस्य स मदाश्रयः ।। अर्थात् मनको ध्यानमें स्थित करता हुआ (जिस प्रकार मुझको संशयरहित समग्ररूपसे जानेगा सो सुन-) यो हि कश्चित् पुरुषार्थेन केनचिद् अर्थी जो कोई (धर्मादि पुरुषाथोंमेंसे) किसी पुरुषार्थका भवति स तत्साधनं कर्म अग्निहोत्रादि तपो चाहनेवाला होता है, वह उसके साधनरूप अग्नि- दानं वा किंचिद् आश्रयं प्रतिपद्यते । अयं तु | होत्रादि कर्म, तप या दानरूप किसी एक आश्रयको ग्रहण किया करता है, परन्तु यह योगी तो अन्य साधनों- योगी माम् एव आश्रयं प्रतिपद्यते हित्वा अन्यत् को छोड़कर केवल मुझको ही आश्रयरूपसे ग्रहण साधनान्तरं मयि एव आसक्तमना भवति ।। करता है, और मुझमें ही आसक्त-चित्त होता है । यात्वम् एवंभूतः सन् असंशयं समग्रं समस्तं इसलिये तू उपर्युक्त गुणोंसे सम्पन्न होकर विभूतिवलशक्त्यैश्वर्यादिगुणसंपन्नं मां यथा विभूति, बल, ऐश्वर्य आदि गुणोंसे सम्पन्न मुझ समग्र येन प्रकारेण ज्ञास्यसि संशयम् अन्तरेण एवम् एव भगवान् निस्सन्देह ठीक ऐसा ही हैं, वह प्रकार परमेश्वरको जिस प्रकार संशयरहित जानेगा कि भगवान् इति तत् शृणु उच्यमानं मया ॥१॥ मैं तुझसे कहता हूँ, सुन ॥१॥