पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२०३

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शांकरभाष्य अध्याय ७ यसाद् मम प्रकृती योनिः कारणं सर्व- क्योंकि मेरो दोनों प्रकृतियाँ ही समस्त भूतोंकी भूतानाम् अतः अहं कृत्स्नस्य समस्तस्य जगतः योनि यानी कारण हैं, इसलिये समस्त जगद्का प्रभव- प्रभव उत्पत्तिः प्रलयो विनाशः तथा. प्रकृति- उत्पत्ति और प्रलय--- -विनाश मैं ही हूँ अर्थात् द्वयद्वारेण अहं सर्वज्ञ ईश्वरो जगतः कारणम् । इन दोनों प्रकृतियोंद्वारा मैं सर्वज्ञ ईश्वर ही समस्त इत्यर्थः ॥ ६॥ जगत्का कारण हूँ ॥६॥ यतः तस्मात् ऐसा होनेके कारण- मत्तः परतरं नान्यत्किचिदस्ति धनंजय । मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥ ७ ॥ मत्तः परमेश्वरात् परतरम् अन्यत् कारणान्तरं मुझ परमेश्वरसे परतर ( अतिरिक्त ) जगत्का किंचिद् न अस्ति न विद्यते, अहम् एव कारण अन्य कुछ भी नहीं है अर्थात् मैं ही जगत्कारणम् इत्यर्थः। जगत्का एकमात्र कारण हूँ। हे धनंजय यस्माद् एवं तस्माद् माय हे धनंजय ! क्योंकि ऐसा है इसलिये यह परमेश्वरे सर्वाणि भूतानि सर्वम् इदं जगद् प्रोतम् सम्पूर्ण जगत् और समस्त प्राणी मुझ परमेश्वरमें, दीर्घ तन्तुओंमें वस्त्रकी भाँति तथा सूत्रमें मणियोंकी अनुस्यूतम् अनुगतम् अनुविद्धं ग्रथितम् इत्यर्थः। भाँति पिरोया हुआ अनुस्यूत--अनुगत---बिंधा दीर्घतन्तुषु पटवत् सूत्रे च मणिगणा इव ॥ ७॥ हुआ--Dथा हुआ है ॥ ७ ॥ केन केन धर्मेण विशिष्टे त्वयि सर्वम् इदं यह समस्त जगत् किस-किस धर्मसे युक्त प्रोतम् इति उच्यते- आपमें पिरोया हुआ है ? इसपर कहते हैं- रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः । प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥ ८॥ रसः अहम् अपां य: सारः स रसः तस्मिन् जलमें मैं रस हूँ अर्थात् जलका जो सार है रसभूते मयि आप प्रोता इत्यर्थः । एवं सर्वत्र । उसका नाम रस है उस रसरूप मुझ परमात्मामें समस्त जल पिरोया हुआ है। ऐसे ही और सबमें भी समझना चाहिये। यथा अहम् अप्सु रस एवं प्रभा अस्मि जैसे जलमें मैं रस हूँ, वैसे ही चन्द्रमा और शशिसूर्ययोः । प्रणव ओंकारः सर्ववेदेषु, तस्मिन् अर्थात् उस ओंकाररूप मुझ परमात्मामें सब वेद सूर्यमें मैं प्रकाश हूँ। समस्त वेदोंमें मैं ओंकार हूँ प्रणवभूते मयि सर्वे वेदाः प्रोताः। पिरोये हुए हैं।