पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२०५

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शांकरभाष्य अध्याय ७ बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् । धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥ ११ ॥ बलं सामर्थ्यम् ओजो बलवताम् अहम् । तत् बलवानोंका जो कामना और आसक्तिसे रहित च बलं कामरागविवर्जितम् । बल—ओज-सामर्थ्य है, वह मैं हूँ। कामः च रागाच कामरागी काम तृष्णा ( अभिप्राय यह कि) अप्राप्त विषयोंकी जो तृष्णा असंनिकृष्टेषु विषयेषु रागो रञ्जना प्राप्तेषु है, उसका नाम 'काम' है और प्राप्त विषयोंमें जो विषयेषु ताभ्यां विवर्जितं देहादिधारणमात्रार्थ प्रीति-तन्मयता है, उसका नाम 'राग' है, उन दोनोंसे वलम् अहम् अस्मि, न तु यत् संसारिणां रहित, केवल देह आदिको धारण करनेके लिये जो बल है, वह मैं हूँ ! जो संसारी जीवोंका बल तृष्णारागकारणम् । कामना और आसक्तिका कारण है, वह मैं नहीं हूँ। किं च धर्माविरुद्धो धर्मेण शास्त्रार्थेन अविरुद्धो तथा हे भरतश्रेष्ठ ! प्राणियों में जोधर्मसे अविरुद्ध या प्राणिषु भूतेषु कामो यथा देहधारण- शास्त्रानुकूल कामना है, जैसे देह-धारणमात्रके मात्राद्यर्थः अशनपानादिविषयः कामः अस्मि | लिये खाने-पीनेकी इच्छा आदि, वह ( इच्छारूप ) हे भरतर्षभ ॥११॥ काम भी मैं ही हूँ ॥११॥ 1 तथा- ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये । मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥१२॥ - ये च एव सात्त्विकाः सत्त्वनिर्धता भावाः जो सात्त्विक-सत्त्वगुणसे उत्पन्न हुए भाव- पदार्था राजसा रजोनिताः तामसाः तमो- पदार्थ हैं और जो राजस-रजोगुणसे उत्पन्न हुए एवं तामस-तमोगुणसे उत्पन्न हुए भाव-पदार्थ निर्वृताः च ये केचित् प्राणिनां स्वकर्मवशाद् हैं, उन सबको अर्थात् प्राणियोंके अपने कर्मानुसार जायन्ते भावाः तान् मत्त एव जायमानान् ये जो कुछ भी भाव उत्पन्न होते हैं उन सबको इति एवं विद्धि सर्वान् समस्तान् एव । तू मुझसे ही उत्पन्न हुए जान । यद्यपि ते मत्तो जायन्ते तथापि न तु यद्यपि वे मुझसे उत्पन्न होते हैं तथापि मैं उनमें नहीं हूँ अर्थात् संसारी मनुष्योंकी भाँति मैं उनके अहं तेषु तदधीनः तद्वशो यथा संसारिणः ते वशमें नहीं हूँ, परन्तु वे मुझमें हैं यानी मेरे वशमें पुनः मयि मदशाः मधीनाः॥१२॥ हैं--मेरे अधीन हैं ॥ १२॥