पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२०६

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श्रीमद्भगवद्गीता एवंभूतम् अपि परमेश्वरं नित्यशुद्धबुद्धमुक्त- ऐसा जो साक्षात् परमेश्वर नित्य-शुद्ध-बुद्ध- खभावं सर्वभूतात्मानं निर्गुणं संसारदोषवीज- मुक्तस्वभाब, एवं सब भूतोंका आत्मा गुणोंसे अतीत और संसाररूप दोपके बीजको भस्म करने- प्रदाहकारणं मां न अभिजानाति जगद् इति वाला मैं हूँ, उसको जगत् नहीं पहचानता ! इस अनुक्रोशं दर्शयति भगवान् । तत् च किंनिमित्तं प्रकार भगवान् खेद प्रकट करते हैं और जगत्का जगतः अज्ञानम् इति उच्यते- यह अज्ञान किस कारणसे है, सो बतलाते हैं--- त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् । मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥ १३ ॥ त्रिभिः गुणमयैः गुणविकारै रागद्वेषमोहादि- गुणों में विकाररूप सात्त्विक, राजस और तामस प्रकारैः भावैः पदार्थः यथोक्तैः सर्वम् इदं इन तीनों भावोंसे अर्थात् उपर्युक्त राग, द्वप और प्राणिजातं जगत् मोहितम् अविवेकताम् : मोह आदि पदार्थोसे यह समस्त जगत् प्राणिसमूह आपादितं सत् न अभिजानाति माम् एभ्यो मोहित हो रहा है अर्थात् विवेकशून्य कर दिया गया है, यथोक्तेभ्यो गुणेभ्यः परं व्यतिरिक्तं विलक्षणं अतः इन उपर्युक्त गुणोंसे अतीत--विलक्षण, च अव्ययं व्ययरहितं जन्मादिसर्वभावविकार- ! अविनाशी-विनाशरहित तथा जन्मादि सम्पूर्ण भाव- वर्जितम् इत्यर्थः ॥१३॥ विकारोंसे रहित मुझ परमात्माको नहीं जान पाता।१३। कथं पुनः दैवीम् एतां त्रिगुणात्मिकां वैष्णवीं तो फिर इस देवसम्बन्धिनी त्रिगुणात्मिका वैष्णवी मायाको मनुष्य कैसे तरते हैं ? इसपर मायाम् अतिक्रामन्ति इति उच्यते--- कहते हैं- दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया । मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥ १४ ॥ दैवी देवस्य मम ईश्वरस्य विष्णोः स्वभूता क्योंकि यह उपर्युक्त देवी माया अर्थात् मुझ हि यस्माद् एषा यथोक्ता गुणमयी मम माया ! व्यापक ईश्वरकी निज शक्ति मेरी त्रिगुणमयी माया दुस्तर है अर्थात् जिससे पार होना बड़ा कठिन दुरत्यया दुःखेन अत्ययः अतिक्रमणं यस्याः सा दुरत्यया । तत्र एवं सति सर्वधर्मान् है, ऐसी है । इसलिये जो सब धर्मोको छोड़कर अपने ही आत्मा मुझ मायापति परमेश्वरकी ही परित्यज्य माम् एव मायाविनं खात्मभूतं सर्वात्मभावसे शरण ग्रहण कर लेते हैं, वे सब भूतों- सर्वात्मना ये प्रपद्यन्ते ते मायाम् एतां सर्वभूत- को मोहित करनेवाली इस मायासे तर जाते हैं- मोहिनी तरन्ति अतिक्रामन्ति, संसारबन्धनाद् वे इसके पार हो जाते हैं अर्थात् संसार-बन्धनसे मुच्यन्ते इत्यर्थः ॥१४॥ मुक्त हो जाते हैं।॥ १४॥