पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२०८

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श्रीमद्भगवद्गीता प्रियो हि यसाद् अहम् आत्मा ज्ञानिनः अतः क्योंकि मैं ज्ञानीका आत्मा हूँ इसलिये उसको तस्य अहम् अत्यर्थं प्रियः। अत्यन्त प्रिय हूँ। प्रसिद्धं हि लोके आत्मा प्रियो भवति संसारमें यह प्रसिद्ध ही है कि आत्मा ही प्रिय इति । तमाद् ज्ञानिन आत्मत्वाद् वासुदेवः होता है । इसलिये ज्ञानीका आत्मा होने के कारण प्रियो भवति इत्यर्थः । भगवान् बासुदेव उसे अत्यन्त प्रिय होता है। यह अभिप्राय है। स च ज्ञानी मम वासुदेवस्य आत्मा एव तथा वह ज्ञानी भी मुझ वासुदेवका आत्मा ही इति मम अत्यर्थं प्रियः ॥१७॥ है, अतः वह मेरा अत्यन्त प्रिय है ॥ १७ ॥ न तर्हि आर्तादयः त्रयो वासुदेवस्य प्रिया ।। तो फिर क्या आर्त आदि तीन प्रकारके भक्त न, किं तहि- आप वासुदेवके प्रिय नहीं हैं ? यह बात नहीं, तो क्या बात है? उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् । आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥ १८ ॥ उदारा उत्कृष्टाः सर्व एव एते त्रयः अपि ये सभी भक्त उदार हैं, श्रेष्ठ हैं । अर्थात् चे मम प्रिया एव इत्यर्थः । न हि कश्चिद् मद्भक्तो तीनों भी मेरे प्रिय ही हैं । क्योंकि मुझ बासुदेवको मम वासुदेवस्य अप्रियो भवति, ज्ञानी तु अपना कोई भी भक्त अप्रिय नहीं होता परन्तु ज्ञानी अत्यर्थं प्रियो भवति इति विशेषः । मुझे अत्यन्त प्रिय होता है इतनी विशेषता है। तत् कसाद् इति आह- ऐसा क्यों है सो कहते हैं- ज्ञानो तु आत्मा एव न अन्यो मत्त इति ज्ञानी तो मेरा स्वरूप ही है, वह मुझसे अन्य मम मतं निश्चयः । आस्थित आरोढुं प्रवृत्तः स नहीं है, यह मेरा निश्चय है; क्योंकि वह योगारूढ़ ज्ञानी हि यस्माद् अहम् एव भगवान् वासुदेवो होनेके लिये प्रवृत्त हुआ ज्ञानी-'स्वयं मैं ही न अन्यः असि इति एवं युक्तात्मा समाहित- भगवान् वासुदेव हूँ, दूसरा नहीं ऐसा युक्तात्मा--- चित्तः सन् माम् एव परं ब्रह्म गन्तव्यम् अनुत्तमा समाहितचित्त होकर मुझ परम प्राप्तव्य गति- गति गन्तुं प्रवृत्त इत्यर्थः ॥ १८॥ खरूप परब्रह्ममें ही आनेके लिये प्रवृत्त है ॥१८॥ ज्ञानी पुनः अपि स्तूयते-~- फिर भी ज्ञानीकी स्तुति करते हैं--- बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते । वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥ १६