पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२१०

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श्रीमद्भगवद्गीता - यथा एवं पूर्व प्रवृत्तः स्वभावतो यो यां अभिप्राय यह कि जो पुरुष पहले स्वभावसे ही देवतात, श्रद्धया अर्चितुम् इच्छति इति ॥२१॥ प्रवृत्त हुआ जिस श्रद्धाद्वारा जिस देवताके स्वरूप- का पूजन करना चाहता है (उस पुरुषकी उसी श्रद्धाको मैं स्थिर कर देता हूँ)॥२१॥ स तया श्रद्धया युक्तस्तस्या राधनमीहते । लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ॥ २२ ॥ स तया मद्विहितया श्रद्धया युक्तः सन् तस्या . मेरे द्वारा स्थिर की हुई उस श्रद्धासे युक्त देवतातन्या राधनम् आराधनम् ईहते चेष्टते । | हुआ वह उसी देवताके स्वरूपकी सेवा-पूजा करनेमें तत्पर होता है। लभते च ततः तस्या आराधिताया देवता- और उस आराधित देवविग्रहसे कर्म-फल-विभाग- तन्वाः कामान् ईप्सितान् मया एव परमेश्वरेण के जाननेवाले मुझ सर्वज्ञ ईश्वरद्वारा निश्चित किये सर्वज्ञेन कर्मफलविभागज्ञतया विहितान् हुए इष्ट भोगोंको प्राप्त करता है । वे भोग परमेश्वर- निर्मितान् तान् हि यस्मात् ते भगवता विहिताः | द्वारा निश्चित किये होते हैं इसलिये बह उन्हें अवश्य कामाः तस्मात् तान् अवश्यं लभते इत्यर्थः । पाता है, यह अभिप्राय है। हितान् इति पदच्छेदे हितत्वं कामानाम् यहाँपर यदि 'हितान् ऐसा पदच्छेद करें तो उपचरितं कल्प्यं न हि कामा हिताः भोगोंमें जो 'हितत्व' है उसको औपचारिक समझना चाहिये, क्योंकि वास्तवमें भोग किसीके लिये भी कस्यचित् ॥२२॥ हितकर नहीं हो सकते ॥२२॥ तद् भवति यसाद् अन्तवत्साधनव्यापारा अविवे- क्योंकि वे सकामी और अविवेकी पुरुष विनाश- किनः कामिनः च ते अतः- शील साधनकी चेष्टा करनेवाले होते हैं, इसलिये------ अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् । देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥ २३ ॥ अन्तवद् विनाशि तु फलं तेषां उन अल्पबुद्धिवालोंका वह फल नाशवान्- अल्पमेधसाम् अल्पप्रज्ञानाम्, देवान् देवयजो यान्ति बिनाशशील होता है । देवयाजी अर्थात् जो देवों- देवान् यजन्ति इति देवयजः ते देवान् यान्ति । का पूजन करनेवाले हैं वे देवोंको पाते हैं और मेरे मद्भक्ता यान्ति माम् अपि । भक्त मुझको ही पाते हैं। एवं समाने अपि आयासे माम् एव न अहो ! बड़े दुःखकी बात है कि इस प्रकार समान प्रपद्यन्ते अनन्त'फलाय अहो खलु कष्टं वर्तन्ते, परिश्रम होनेपर भी लोग अनन्त फलकी प्राप्ति के लिये इति अनुक्रोशं दर्शयति भगवान् ॥ २३ ॥ केवल मुझ परमेश्वरके ही शरणमें नहीं आते ! इस प्रकार भगवान् करुणा प्रकट करते हैं ॥ २३ ॥