पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२१२

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श्रीमद्भगवद्गीता वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन । भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ॥ २६ ॥ अहं तु वेद जाने समतीतानि समतिक्रान्तानि हे अर्जुन ! जो पूर्वमें हो चुके हैं उन प्राणियोंको भूतानि वर्तमानानि च अर्जुन भविष्याणि च एवं जो वर्तमान हैं और जो भविष्यमें होनेवाले हैं उन । सब भूतोंको मैं जानता हूँ। परन्तु मेरे भूतानि वेद अहम्, मां तु वेद न कश्चन मद्भक्तं भक्तको छोड़कर मुझे और कोई भी नहीं जानता मच्छरणम् एकं मुक्त्वा मत्तत्ववेदनाभावाद् और मेरे तत्वको न जाननेके कारण ही ( अन्य एव न मां भजते ।। २६॥ जन ) मुझे नहीं भजते ॥ २६ ॥ शरणागत केन पुनः त्वत्तत्त्ववेदनप्रतिवन्धेन प्रति- आपका तत्व जानने में ऐसा कौन प्रतिबन्धक है, बद्धानि सन्ति जायमानानि सर्वभूतानि त्वां न | जिससे मोहित हुए सभी उत्पत्तिशील प्राणी आपको विदन्ति इति अपेक्षायाम् इदम् आह-- नहीं जान पाते? यह जानने की इच्छा होनेपर कहते हैं-- इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत । सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परंतप ॥ २७ ॥ इच्छाद्वेषसमुत्थेन इच्छाच द्वेषः च इच्छाद्वेषौ इच्छा और द्वेष इन दोनोंसे जो उत्पन्न होता ताभ्यां समुत्तिष्ठति इति इच्छाद्वेषसमुत्थः तेन है उसका नाम इच्छाहपसमुत्थ है, उससे ( प्राणी इच्छाद्वेषसमुत्थेन । मोहित होते हैं।) केन इति विशेषापेक्षायाम् इदम् आह- वह कौन है ? ऐसी विशेष जिज्ञासा हानेपर यह कहते हैं- इन्द्वमोहेन द्वन्द्वनिमित्तोमोहो द्वन्द्वमोहः तो दून्द्रोंके निमित्तसे होनेवाला जो मोह है उस द्वन्दू- मोहसे ( सत्र मोहित होते हैं ) । शीत और उष्णकी एव इच्छाद्वेषौ शीतोष्णवत् परस्परविरुद्धौ | भाँति परस्परविरुद्ध (स्वभाववाले ) और सुख-दुःख सुखदुःखतद्धेतुविषयौ यथाकालं सर्वभूतैः तथा उनके कारणोंमें रहनेवाले वे इच्छा और द्वेष ही संबध्यमानौ द्वन्द्वशब्देन अभिधीयते । तत्र यदा | यथासमय सब भूतप्राणियोंसे सम्बन्धयुक्त होकर इच्छाद्वेषौ सुखदुःखतद्धेतुसंप्राप्त्या लब्धात्मको द्वन्द्व नामसे कहे जाते हैं । सो ये इच्छा और द्वेष, भवतः तदा तो. सर्वभूतानां प्रज्ञायाः होनेपर प्रकट होते हैं, तब वे सब भूलोंकी बुद्धिको जब इस प्रकार सुख-दुःख और उनके कारणकी प्राप्ति खवशापादनद्वारेण परमार्थात्मतत्त्वविषय- अपने वशमें करके परमार्थ-तत्व-विषयक ज्ञानकी ज्ञानोत्पत्तिप्रतिबन्धकारणं मोहं जनयतः। उत्पत्तिका प्रतिबन्ध करनेवाले मोहको उत्पन्न करते हैं।