पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२१३

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शांकरभाष्य अध्याय ७ न हि इच्छाद्वेषदोषवशीकृतचित्तस्य यथा- जिसका चित्त इच्छा-द्वेषरूप दोषोंके वशमें फंस भूतार्थविषयज्ञानम् उत्पद्यते बहिः अपि, किस रहा है, उसको बाहरी विषयोंके भी यथार्थ तत्त्वका वक्तव्यं ताभ्याम् आविष्टबुद्धेः ज्ञान प्राप्त नहीं होता, फिर उन दोनोंसे जिसकी संमूढस्य बुद्धि आच्छादित हो रही है ऐसे मूढ़ पुरुषको प्रत्यगात्मनि बहुप्रतिबन्धे ज्ञानं न उत्पद्यते अनेकों प्रतिबन्धोंवाले अन्तरात्मविषयका ज्ञान नहीं इति। होता, इसमें तो कहना ही क्या है ? अतः तेन इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन इसलिये हे भारत ! अर्थात् भरतवंशमें उत्पन्न भारत भरतान्वयज सर्वभूतानि संमोहितानि अर्जुन ! उस इच्छा-द्वेष-जन्य द्वन्दू-निमित्तक मोहके सन्ति,संमोहं संमूढतां सर्गे जन्मनि उत्पत्तिकाले द्वारा मोहित हुए समस्त प्राणी, हे परन्तप ! जन्म- इति एतद् यान्ति गच्छन्ति हे परंतप । कालमें- ---उत्पन्न होते ही मूढभावमें फंस जाते हैं। मोहवशानि एव सर्वभूतानि जायमानानि अभिप्राय यह है कि उत्पत्तिशील समस्त प्राणी जायन्ते इति अभिप्रायः। मोहके वशीभूत हुए ही उत्पन्न होते हैं । यत एवम् अतः तेन द्वन्द्वमोहेन प्रतिबद्ध- ऐसा होनेके कारण द्वन्द्वमोहसे जिनका प्रज्ञानानि सर्वभूतानि संमोहितानि माम् ज्ञान प्रतिबद्ध हो गया है वे मोहित हुए समस्त प्राणी अपने आत्मारूप मुझ (परमात्मा ) को आत्मभूतं न जानन्ति अत एव आत्मभावेन नहीं जानते और इसीलिये वे आत्मभावसे मुझे मां न भजन्ते ॥ २७॥ नहीं भजते ॥२७॥ 033*** के पुनः अनेन द्वन्द्वमोहेन निर्मुक्ताः सन्तः तो फिर इस द्वन्द्वमोहसे छूटे हुए ऐसे कौन-से मनुष्य जो आपको शास्त्रोक्त प्रकारसे आत्मभावसे त्वां विदित्वा यथाशास्त्रम् आत्मभावेन भजन्ते भजते हैं ? इस अपेक्षित अर्थको दिखानेके लिये इति अपेक्षितम् अर्थ दर्शयितुम् उच्यते- कहते हैं- येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् । ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥ २८ ॥ येषां तु पुनः अन्तगतं समाप्तप्रायं क्षीणं पापं जिन पुण्यकर्मा पुरुषोंके पापोंका लगभग अन्त जनानां पुण्यकर्मणां पुण्यं कर्म येषां सत्त्वशुद्धि- हो गया होता है, अर्थात् जिनके कर्म पवित्र यानी कारणं विद्यते ते पुण्यकर्माण तेषां पुण्यकर्मणाम्, अन्तःकरणकी शुद्धिके कारण होते हैं वे पुण्यकर्मा ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता यथोक्तेन द्वन्द्वमोहेन निर्मुक्ता हैं ऐसे उपर्युक्त द्वन्द्वमोहसे मुक्त हुए वे दृढ़वती भजन्ते मां परमात्मानं दृढव्रताः, एवम् एव पुरुष मुझ परमात्माको भजते हैं। 'परमार्थतत्त्व परमार्थतत्त्वं न अन्यथा इति एवं निश्चित- ठीक इसी प्रकार है, दूसरी प्रकार नहीं ऐसे निश्चित विज्ञाना दृढव्रता उच्यन्ते ॥ २८ ॥ विज्ञानवाले पुरुष दृढ़वती कहे जाते हैं ॥ २८ ॥ !