पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

शांकरभाष्य अध्याय ८ 'अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मात्' इति च उपक्रम्य तथा 'जो धर्मसे विलक्षण है और अधर्मले भी 'सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च विलक्षण है' इस प्रकार प्रसंग आरम्भ करके फिर 'समस्त वेद जिस परमपदका वर्णन कर रहे हैं, यद्वदन्ति । यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्य चरन्ति तत्ते पदं समस्त तप जिसको बतला रहे हैं, तथा जिस संग्रहेण नवीम्योमित्येतत् (का ० उ०२।१३-१४) करते हैं, वह परमपद संक्षेपसे तुझे बतलाऊँगा; परमपदको चाहनेवाले ब्रह्मचर्यका डालन किया इत्यादिभिः च वचनैः। वह है 'ओम् ऐसा यह (एक अक्षर)।" इत्यादि वचनोंसे ( काठकोपनिषदने )। परस्य ब्रह्मणो बाचकरूपेण प्रतिभावत् परब्रह्मका वाचक होनेसे एवं प्रतिभाकी भाँति प्रतीकरूपेण च परब्रह्मप्रतिपत्तिसाधनत्वेन उसका प्रतीक ( चिह्न ) होनेसे मन्द और मध्यम भन्दमध्यमबुद्धीनां विवक्षितस्य ओंकारस्य बुद्धिवाले साधकोंके लिये जो परब्रह्म-परमात्माकी प्राप्तिका साधनरूप माना गया है उस ओंकारकी उपासनं कालान्तरे मुक्तिफलम् उक्तं यत, कालान्तरमें मुक्तिरूप फल देनेवाली जो उपासना बतलायी गयी है, तद् एव इह अपि 'कवि पुराणमनुशा- यहाँ भी कवि पुराणमनुशालितारम्' 'यदक्षरं सितारम्' 'यदक्षरं वेदविदो वदन्ति' इति च वेदविदो वदन्ति' इस प्रकार प्रतिपादन किये हुए उपन्यस्तस्य परस्य ब्रह्मणः पूर्वोक्तरूपेण प्रति- ओंकार है, उसकी कालान्तरमें मुक्तिरूप फल देने- परब्रह्मकी प्राप्तिका पूर्वोक्तरूपसे उपायभूत जो पत्युपायभूतस्य ओंकारस्य कालान्तरमुक्ति- वाली वही उपासना, योग-धारणा सहित कहनी है । फलम् उपासनम्, योग हितं वक्तव्यं तथा उसके प्रसंग और अनुप्रसंगमें आनेवाली बातें प्रसक्तानुप्रसक्तं च यत्किंचिद् इति एवमर्थ भी कहनी हैं । इसलिये आगेका ग्रन्थ आरम्भ किया उत्तरो ग्रन्थ आरभ्यते- सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च । मूाधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥१२॥ सर्वद्वाराणि सर्वाणि च तानि द्वाराणि च समस्त द्वारोंका अर्थात् विषयोंकी उपलब्धिके सर्वद्वाराणि उपलब्धौ तानि सर्वाणि संयम्य द्वाररूप जो समस्त इन्द्रियगोलक हैं उन सबका संयम करके, एवं मनको हृदयकमलमें निरुद्ध करके अर्थात् संयमनं कृत्वा, मनो हदि हृदयपुण्डरीके निरुथ्य संकल्प-विकल्पसे रहित करके, फिर वशमें किये हुए निरोधं कृत्वा निष्प्रचारम् आपाय, तत्र वशी- मनके सहारेसे हृदयसे ऊपर जानेवाली नाडीद्वारा ऊपर चढ़कर अपने प्राणोंको मस्तकमें स्थापन करके कृतेन मनसा हृदयाद् ऊर्ध्वगामिन्या नाड्या योगधारणाको धारण करनेके लिये प्रवृत्त हुआ साधक ऊर्ध्वम् आरुह्य मूर्धनि आधाय आत्मनः प्राणम् (परमगतिको प्राप्त होता है इस प्रकार अगले आस्थितः प्रवृत्तो योगधारणां धारयितुम् ॥१२॥ इलोकसे सम्बन्ध है ) ॥ १२ ॥ जाता है- ।