पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२२८

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श्रीमद्भगवद्गीता अहः तथा अहर्देवता शुक्लः शुक्ल- ( अभिप्राय यह कि जिस मार्ग में अग्निदेवता, पक्षदेवता षण्मासा उत्तरायणं तत्र अपि देवता | ज्योतिदेवता, ) दिनका देवता, शुक्ल पक्षका देवता और उत्तरायणके छ: महीनोंका देवता है उस मार्ग- एव मार्गभूता इति स्थितः अन्यत्र न्यायः। में ( अर्थात् उपर्युक्त देवताओं के अधिकारमें) मरकर तत्र तसिन् मार्गे प्रयाता मृता गच्छन्ति ब्रह्म गये हुए ब्रह्मवेत्ता यानी ब्रह्मकी उपासनामें तत्पर ब्रह्मविदो ब्रह्मोपासनपरा जनाः । क्रमेण इति | हुए पुरुष क्रमसे ब्रह्मको प्राप्त होते हैं । यहाँ उत्तरायण मार्ग भी देवताका ही वाचक है, क्योंकि अन्यत्र वाक्यशेषः। (ब्रह्मसूत्रमें ) भी यही न्याय माना गया है । न हि सद्योमुक्तिभाजां सम्यग्दर्शननिष्ठानां जो पूर्ण ज्ञाननिष्ठ सद्योमुक्तिके पात्र होते हैं गतिः आगतिः वा क्वचिद् अस्ति 'न तस्य | उनका आना-जाना कहीं नहीं होता ! श्रुति भी | कहती है, उसके प्राण निकलकर कहीं नहीं जाते।' प्राणा उत्क्रामन्ति' इति श्रुतेः । ब्रह्मसंलीनप्राणा वे तो 'ब्रह्मसंलीनप्राण' अर्थात् ब्रह्ममय-ब्रह्म- एव ते ब्रह्ममया ब्रह्मभूता एव ते ॥२४॥ रूप ही हैं ॥२४॥ धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम् । तत्र चान्द्रमसं ज्योतियोगी प्राप्य निवर्तते ॥ २५ ॥ धूमौ रात्रिः धूमाभिमानिनी रान्यभिमानिनी | जिस मार्गमें धूम और रात्रि है अर्थात् धूमा- भिमानी और रात्रि-अभिमानी देवता है तथा कृष्णपक्ष च देवता । तथा कृष्णः कृष्णपक्षदेवता । षण्मासा | अर्थात् कृष्णपक्षका देवता है एवं दक्षिणायनके छः दक्षिणायनम् इति च पूर्ववद् देवता एच । तत्र महीने हैं अर्थात् पूर्ववत् दक्षिणायन मार्गाभिमानी | देवता है, उस मार्गमें (उन उपर्युक्त देवताओंके चन्द्रमसि भवं चान्द्रमसं ज्योतिः फलम् अधिकारमें मरकर ) गया हुआ योगी अर्थात् इष्ट-पूर्त आदि कर्म करनेवाला कर्मी, चन्द्रमाकी ज्योतिको इष्टादिकारी योगी कर्मी प्राप्य भुक्त्वा तत्क्षयाद् अर्थात् कर्मफलको प्राप्त होकर----भोगकर उस कर्म- निवर्तते ॥२५॥ फलका क्षय होनेपर लौट आता है ॥२५॥ शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते । एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः ॥ २६ ॥ शुक्लकृष्णे शुक्ला च कृष्णा च शुक्लकृष्णे । शुक्ल और कृष्ण ये दो मार्ग, अर्थात् जिसमें ज्ञानका प्रकाश है वह शुक्ल और जिसमें उसका ज्ञानप्रकाशकत्वात् शुक्ला तदभावात् कृष्णा । अभाव है वह कृष्ण --ऐसे ये दोनों मार्ग जगत के लिये एते शुक्लकृष्ण हि गती. जगत इति नित्य -- सदासे माने गये हैं क्योंकि जगत् नित्य है ।