पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२३३

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शांकरभाष्य अध्याय न हि निरात्मकं किंचिद् भूतं व्यवहाराय। क्योंकि कोई भी निजौव प्राणी व्यवहारके योग्य अबकल्पते अतो मत्स्थानि मया आत्मना नहीं समझा जाता ! अतः वे सब मुझमें स्थित हैं आत्मवत्वेन स्थितानि अतो मयि स्थितानि इति अर्थात् मुझ परमात्माले ही आत्मवान् हो रहे हैं, उच्यन्ते । इसलिये मुझमें स्थित कहे जाते हैं। तेषां भूतानाम् अहम् एत्र आत्मा इति अतः उन भूतोंका वास्तविक स्वरूप मैं ही हूँ इसलिये तेषु स्थित इति मूढबुद्धीनाम् अवभासते । अतः अज्ञानियोंको ऐसी प्रतीति होती है कि मैं उनमें ब्रवीमि न च अहं तेषु भूतेषु अवस्थितः, मूर्तवत् नहीं है। क्योंकि साकार वस्तुओं की भाँति मुझमें स्थित हूँ, अतः कहता हूँ कि मैं उन भूतोंमें स्थित संश्लेषाभावेन आकाशस्य अपि अन्तरतमो संसर्गदोष नहीं है इसलिये मैं बिना संसर्गके सूक्ष्मभावसे हि अहम् । न हि असंसर्गि बस्तु क्वचिद् आकाशके भी अन्तर्व्यापी हूँ । संगहीन वस्तु कहीं आधेयभावेन अवस्थितं भवति ॥४॥ भी आवेयभावसे स्थित नहीं होती, यह प्रसिद्ध है।॥४॥ । अत एव असंसर्गित्वाद् मन- मैं असंसगी हूँ, इसलिये--- न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् । भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥ ५ ॥ न च मत्स्थानि भूतानि ब्रह्मादीनि पश्य मे (वास्तवमें) ब्रह्मादि सब प्राणी भी मुझमें स्थित योगं युक्ति घटनं मे मम ऐश्वरम् ईश्वरस्य इमम् नहीं हैं, तू मेरे इस ईश्वरीय योग-युक्ति-घटनाको ऐश्वरं योगम् आत्मनो याथात्म्यम् इत्यर्थः । देख, अर्थात् मुझ ईश्वरके योगको यानी यथार्थ आत्मतत्वको समझ। तथा च श्रुतिः असंसर्गित्वाद् असङ्गता 'संसर्गरहित आत्माकहीं भीलित नहीं होता' दर्शयति 'असङ्गो न हि सज्जते' (बृ० उ०३ ॥ ९॥ यह श्रुति भी संसर्गरहित होनेके कारण ( आत्माकी) २६) इति । निर्लेपता दिखलाती है। इदंच आश्चर्यम् अन्यत् पश्य भूतभृद् असङ्गा यह और भी आश्चर्य देख कि भूतभावन मेरा आत्मा अपि सन् भूतानि बिभर्ति न च भूतस्थो संसर्गरहित होकर भी भूतोंका भरण-पोषण करता रहता है परन्तु भूतोंमें स्थित नहीं है। क्योंकि यथोक्तेन न्यायेन दर्शितत्वाद् भूतस्थत्वा- परमात्माका भूतोंमें स्थित होना सम्भव नहीं, यह बात नुपपत्तेः। उपर्युक्त न्यायसे स्पष्ट दिखलायी जा चुकी है। कथं पुनः उच्यते असौ मम आत्मा इति, पू०-(जब कि आत्मा अपनेसे कोई अन्य वस्तु ही नहीं है ) तो 'मेरा आत्मा' यह कैसे कहा जाता है ? विभज्य देहादिसंघातं तसिन् अहंकारम् उ०-लौकिक बुद्धिका अनुकरण करते हुए अध्यारोप्य लोकबुद्धिम् अनुसरन् व्यपदिशति देहादि संघातको आत्मासे अलग करके फिर मम आत्मा इति, न पुनः आत्मन आत्मा अन्य उसमें अहंकारका अध्यारोप करके 'मेरा आत्मा' ऐसा

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