पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२३४

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श्रीमद्भगवद्गीता इति लोकवद् अजानन् । कहते हैं, आत्मा अपने आपसे भिन्न है ऐसा समझकर लोगोंकी भाँति अज्ञानपूर्वक ऐसा नहीं कहते । तथा भूतभावनो भूतानि भावयति उत्पाद- जो भूतोंको प्रकट करता है--उत्पन्न करता है या यति वर्धयति इति वा भूतभावनः ॥५॥ बढ़ाता है उसको भूतभावन कहते हैं ॥ ५॥ यथोक्तेन श्लोकद्वयेन उक्तम् अर्थ दृष्टान्तेन उपर्युक्त दो श्लोकोंद्वारा कहे हुए अर्थको उपपादयन् आह--- दृष्टान्तसे सिद्ध करते हुए कहते हैं--- यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् । तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥ ६ ॥ यथा लोके आकाशस्थित आकाशे स्थितो लोकमें जैसे (यह प्रसिद्ध है कि ) सब जगह नित्यं सदा वायुः सर्वत्र गच्छति इति सर्वत्रगो | विचरनेवाला परिमाणमें अति महान् वायु सदा महान् परिमाणतः तथा आकाशवत् सर्वगते मयि | आकाशमें ही स्थित है, वैसे ही आकाशके समान असंश्लेषेण एव स्थितानि इति एवम् उपधारय | सर्वत्र परिपूर्ण मुझ परमात्मामें समस्त भूत निलिस- जानीहि ॥६ भावसे स्थित हैं, ऐसा तू जान ॥६॥ एवं वायुः आकाशे इव मयि स्थितानि इस प्रकार जगत्के स्थितिकालमें, आकाशमें सर्वभूतानि स्थितिकाले तानि-- वायुकी भाँति, मुझमें स्थित जो समस्त भूत हैं बे- सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृति यान्ति मामिकाम् । कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ॥ ७॥ सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं त्रिगुणात्मिकाम् ! सम्पूर्ण प्राणी, हे कुन्तीपुत्र ! प्रलयकालमें मेरी अपरां निकृष्टां यान्ति मामिका मदीयां कल्पक्षये | त्रिगुणमयी-अपरा-निकृष्ट प्रकृतिको प्राप्त हो जाते प्रलयकाले । पुनः भूयः तानि भूतानि उत्पत्ति- हैं और फिर कल्पके आदिमें अर्थात् उत्पत्तिकालमें काले कल्पादौ विसृजामि उत्पादयामि अहं मैं पहलेकी भाँति पुनः उन प्राणियोंको रचता हूँ--- पूर्ववत् ॥७॥ उत्पन्न करता हूँ ॥ ७॥ एवम् अविद्यालक्षणाम्--- इस प्रकार अविद्यारूप- प्रकृति खामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः । भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥ ८॥ प्रकृतिं खां स्वीयाम् अवष्टभ्य वशीकृत्य अपनी प्रकृतिको वशमें करके, मैं प्रकृतिसे विसृजामि पुनः पुनः प्रकृतितो जातं भूतग्राम उत्पन्न हुए इस विद्यमान समग्र अवतन्त्र भूत- भूतसमुदायम् इमं वर्तमानं कृत्स्नं समग्रम् अवशम् अखतन्त्रम् अविद्यादिदोषैः परवशीकृतं समुदायको, जो कि खभाववश अविद्यादि दोषोंसे प्रकृतेः वशात् स्वभाववशात् ॥ ८॥ परवश हो रहा है, बारंबार रचता हूँ ॥८॥