पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२३५

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शांकरभाष्य अध्याय ६ तर्हि तस्य ते परमेश्वरस्य भूतग्राम विषम तब तो भूतसमुदायको विषम रचनेवाले आप विदधतः तनिमित्ताभ्यां धर्माधर्माभ्यां संबन्धः परमेश्वरका उस विषम रचनाजनित पुण्य-पापसे भी सम्बन्ध होता ही होगा? ऐसी शंका होनेपर स्थाद् इति इदम् आह भगवान् - भगवान् ये वचन बोले- न च मां तानि कर्माणि नियनन्ति धनंजय । उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥ ६ ॥ न च माम् ईशं तानि भूतग्रामस्य विषम- हे धनंजय ! भूतसमुदायकी विषम रचना- विसर्गनिमित्तानि कर्माणि निबन्नन्ति धनंजय । निमित्तक वे कर्म, मुझ ईश्वरको बन्धनमें नहीं डालते। न होनेसे कारण तत्र कर्मणाम् असंबद्धत्वे कारणम् आह- उन कर्मोंका सम्बन्ध बतलाते हैं- उदासीनवद् आसीनं यथा उदासीन उपेक्षक: मैं उन कोंमें उदासीनकी भाँति स्थित रहता हूँ कश्चित् तद्वद् आसीनम् आत्मनः अवि- अर्थात् आत्मा निर्विकार है, इसलिये जैसे कोई क्रियत्वात्, असक्तं फलासङ्गरहितम् अभिमान- उदासीन-उपेक्षा करनेवाला स्थित हो, उसीकी भाँति मैं स्थित रहता हूँ। तथा उन कोंमें फलसम्बन्धी वर्जितम् अहं करोमि इति तेषु कर्मसु । आसक्तिसे और 'मैं करता हूँ इस अभिमानसे भी मैं रहित हूँ। ( इस कारण वे कर्म मुझे नहीं बाँधते। अतः अन्यस्य अपि कर्तृत्वाभिमानाभावः इससे यह अभिप्राय समझ लेना चाहिये कि, कर्तापनके अभिमानका अभाव और फलसम्बन्धी फलासङ्गाभावः च अवन्धकारणम् अन्यथा आसक्तिका अभाव दूसरोंको भी बन्धनरहित कर कर्मभिः बध्यते मूढः कोशकारवद् इति देनेवाला है । इसके सिवा अन्य प्रकारसे किये हुए अभिप्रायः ॥९॥ कोद्वारा मूर्ख लोग कोशकार (रेशमके कीड़े) की भाँति बन्धनमें पड़ते हैं ॥ ९॥ तत्र भूतग्रामम् इमं विसृजामि उदासीनवद् । यहाँ यह शंका होती है कि 'इस भूतसमुदायको मैं आसीनम् इति च विरुद्धम् उच्यते इति तत्परिहा- रचता हूँ' तथा 'मैं उदासीनकी भाँति स्थित रहता हूँ' यह कहना परस्पर विरुद्ध है। इस शंकाको दूर करनेके लिये कहते हैं- रार्थम् आह-- मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् । हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥१०॥