पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२३६

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२२० श्रीमद्भगवद्गीता सचराचरं जगत् । मया सर्वतो दृशिमात्रस्वरूपेण अविक्रिया- सब ओरसे द्रष्टामात्र ही जिसका स्वरूप है ऐसे त्मना अध्यक्षेण मम माया त्रिगुणात्मिका निर्विकारस्वरूप मुझ अधिष्टातासे (ग्रेरित होकर ) अविद्यालक्षणा प्रकृतिः सूयते उत्पादयति । अविद्यारूप मेरी त्रिगुणमयी माया-प्रकृति समस्त चराचर जगत्को उत्पन्न किया करती है। तथा च मन्त्रवर्ण:- ‘एको देवः सर्वभूतेषु गूढः वेद-मन्त्र भी यही बात कहते हैं कि 'समस्त सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा । कर्माध्यक्षः सर्वभूताधि- | भूतोंमें अदृश्यभावसे रहनेवाला एक ही देव है वासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च ॥' ( श्वे० उ० जो कि सर्वव्यापी और सम्पूर्ण भूतोंका अन्तरात्मा तथा कर्मों का स्वामी समस्त भूतोंका ६।११) इति । आधार, साक्षी, चेतन, शुद्ध और निगुण है।' हेतुना निमित्तेन अनेन अध्यक्षत्वेन कौन्तेय हे कुन्तीपुत्र ! इसी कारणसे अर्थात् मैं इसका जगत् सचराचरं व्यक्ताव्यक्तात्मकं विपरिवर्तते अध्यक्ष हूँ इसीलिये चराचरसहित साकार-निराकार- रूप समस्त जगत् सब अवस्थाओंमें परिवर्तित होता सर्वासु अवस्थासु । रहता है। दृशिकर्मत्वापत्तिनिमित्ता हि जगतः सर्वा क्योंकि जगत्की समस्त प्रवृत्तियाँ साक्षी-चेतनके प्रवृत्तिः अहम् इदं भोक्ष्ये पश्यामि इदं शृणोमि | ज्ञानका विषय बननेके लिये ही हैं । मैं यह खाऊँगा, इदं सुखम् अनुभवामि दुःखम् अनुभवामि यह देखता हूँ, यह सुनता हूँ, अमुक सुखका अनुभव तदर्थम् इदं करिष्यामि एतदर्थम् इदं करिष्ये कार्य करूँगा, इसके लिये अमुक कार्य करूँगा, अमुक करता हूँ,दुःखका अनुभव करता हूँ,उसके लिये | अमुक इदम् ज्ञास्यामि इत्याद्या अवगतिनिष्ठा वस्तुको जानूँगा, इत्यादि जगत्की समस्त प्रवृत्तियाँ अवगत्यवसाना एव। ज्ञानाधीन और ज्ञानमें ही लय हो जानेवाली हैं। 'यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन् (तै० ब्रा० २१८॥ 'जो इस जगत्का अध्यक्ष साक्षी-चेतन है वह ९) इत्यादयः च मन्त्राएतम् अर्थदर्शयन्ति । परम हृदयाकाशमें स्थित है' इत्यादि मन्त्र भी यही अर्थ दिखला रहे हैं। ततः च एकस्य देवस्य सर्वाध्यक्षभूत- जब कि सबका अध्यक्षरूप चैतन्यमात्र एक देव चैतन्यमात्रस्य परमार्थतः सर्वभोगानभि- वास्तवमें समस्त भोगोंके सम्बन्धसे रहित है और उसके संबन्धिनः अन्यस्य चेतनान्तरस्य अभावे सिवा अन्य चेतन न होनेके कारण दूसरे भोक्ताका अभाव है तो यह सृष्टि किसके लिये है ? इस प्रकार- भोक्तुः अन्यस्य अभावात् किंनिमित्ता इयं का प्रश्न और उसका उत्तर--यह दोनों ही नहीं बन सृष्टिः इति अत्र प्रश्नप्रतिवचने अनुपपन्ने । सकते ( अर्थात् यह विषय अनिर्वचनीय है)। 'को अद्धा वेद क इह प्रवोचत् कुत आजाता (इसको) साक्षात् कौन जानता है-इस विषयमें कौन कह सकता? यह जगत् कहाँसे कुत इयं विसृष्टिः' (तै० ब्रा० २ । ८ । ९) आया ? किस कारण यह रचना हुई ?' इत्यादि इत्यादिमन्त्रवर्णेभ्यः। मन्त्रोंसे ( यही बात कही गयी है)।