पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२३७

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शांकरभाष्य अध्याय ६ २२१ दर्शितं च भगवता 'अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन : इसके सिवा भगवान्ने भी कहा है कि 'अहानसे मुह्यन्ति जन्तवः' इति ॥ १०॥ ज्ञान आवृत हो रहा है इसलिये समस्त जीव मोहित हो रहे हैं। ॥१०॥ एवं मां नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं सर्व- इस प्रकार मैं यद्यपि नित्य-शुद्र-बुद्ध-मुक्तस्वभाव जन्तूनाम् आत्मानम् अपि सन्तम्---- तथा सभी प्राणियोंका आत्मा हूँ तो भी---- अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् । परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥११॥ अवजानन्ति अवज्ञा परिभवं कुर्वन्ति मां मूढा मूढ़-अविवेकी लोग मेरे सर्व लोकोंके महान् अविवेकिनो मानुषी मनुष्यसंबन्धिनी तनुं देहम् : ईश्वररूप परमभावको अर्थात् सबका अपना आत्मा- आश्रितं मनुष्यदेहेन व्यवहरन्तम् इति एतत् । रूप मैं परमात्मा सत्र प्राणियोंका महान् ईश्वर हूँ एवं आकाशकी भाँति बल्कि आकाशकी अपेक्षा भी परं प्रकृष्टं भावं परमात्मतत्त्वम् आकाशकल्पम् सूक्ष्मतर भावसे व्यापक हूँ-इस परम परमात्मतत्त्वको आकाशाद् अपि अन्तरतमम् अजानन्तो मम न जाननेके कारण मुझ मनुष्यदेहधारी परमात्माको भूतमहेश्वरं सर्वभूतानां महान्तम् ईश्वरं स्वम् तुच्छ समझते हैं अर्थात् मनुष्यरूपसे लीला करते हुए मुझ परमात्माकी अवज्ञा-अनादर करते हैं । आत्मानम्। ततःच तस्य मम अवज्ञानभावनेन आहता इसलिये मुझ परमात्माके निरादरकी भावनासे वे वराकाः ते ॥११॥ पामर जीव ( व्यर्थ ) मारे हुए पड़े हैं ॥११॥ . 1. क्योंकि- मोघाशा मोधकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः । राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृति मोहिनीं श्रिताः ॥ १२ ॥ मोघाशा वृथा आशा आशिषो येषां ते वे मोघाशा-जिनकी आशाएँ-कामनाएँ व्यर्थ हों, मोधाशाः। तथा मोधकर्माणो यानि च अग्नि- ऐसे व्यर्थ कामना करनेवाले और मोधकर्मा-व्यर्थ होत्रादीनि तैः अनुष्ठीयमानानि कर्माणि तानि कर्म करनेवाले होते हैं; क्योंकि उनके द्वारा जो कुछ च तेषां भगवत्परिभवात् स्वात्मभूतस्य अग्निहोत्रादि कर्म किये जाते हैं वे सब अपने अवज्ञानाद् मोघानि एव निष्फलानि कर्माणि अन्तरात्मारूप भगवान्का अनादर करनेके कारण भवन्ति इति मोधकर्माण। निष्फल हो जाते हैं । इसलिये वे मोधकर्मा होते हैं ।