पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२२२ श्रीमद्भगवद्गीता तथा मोघज्ञाना निष्फलज्ञाना ज्ञानम् अपि इसके अतिरिक्त वे मोघज्ञानी-निष्फल ज्ञानवाले तेषां निष्फलम् एव स्यात् । विचेतसो विगत- होते हैं, अर्थात् उनका ज्ञान भी निष्फल ही होता विवेकाः च ते भवन्ति इति अभिप्रायः । है। और वे विचेता अर्थात् विवेकहीन भी होते हैं । किं च ते भवन्ति राक्षसी रक्षसां प्रकृति तथा वे मोह उत्पन्न करनेवाली देहात्मवादिनी खभावम् आसुरी असुराणां च प्रकृति मोहिनी राक्षसी और आसुरी प्रकृतिका यानी राक्षसोंके और मोहकरी देहात्मवादिनीं श्रिता आश्रिताः छिन्धि असुरोंके स्वभावका आश्रय करनेवाले हो जाते हैं । अभिप्राय यह कि, तोड़ो, फोड़ो, पियो, खाओ, मिन्धि पिब खाद परखम् अपहर इति एवं दूसरोंका धन लूट ली इत्यादि वचन बोलनेवाले और वदनशीलाः क्रूरकर्माणो भवन्ति इत्यर्थः ।। बड़े क्रूरकर्मा हो जाते हैं। श्रुति भी कहती है कि वे 'असुर्या नाम ते लोका' (ई० उ०३) इति श्रुतेः॥ । असुरोंके रहनेयोग्य लोक प्रकाशहीन हैं' इत्यादि। ये पुनः श्रद्दधाना भगवद्भक्तिलक्षणे मोक्ष- परन्तु जो श्रद्धायुक्त हैं और भगवद्भक्तिरूप मार्गे प्रवृत्ता:-- मोक्षमार्गमें लगे हुए हैं वे--- महात्मानस्तु मां पार्थ दैवी प्रकृतिमाश्रिताः । भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ॥ १३ ॥ महात्मानः तु अक्षुद्रचित्ता माम् ईश्वरं पार्थ दैवों हे पार्थ ! शम, दम, दया, श्रद्धा आदि सद्गुण- देवानां प्रकृति शमदमदयाश्रद्धादिलक्षणाम् चित्त महात्मा भक्तजन, मुझ ईश्वरको सब भूतोका रूप देवोंके स्वभावका अवलम्बन करनेवाले उदार- आश्रिताः सन्तः, भजन्ति सेवन्ते अनन्यमनसः | अर्थात् आकाशादि पञ्चभूतोंका और समस्त प्राणियोंका भी आदिकारण जानकर, एवं अविनाशी अनन्यचित्ता ज्ञात्वा भूतादिभूतानां वियदादीनां समझकर, अनन्य मनसे युक्त हुए भजते हैं अर्थात् प्राणिनां च आदि कारणम् अव्ययम् ॥ १३ ॥ मेरा चिन्तन किया करते हैं ।।१३।। किस प्रकार भजते हैं- सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः । नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥ १४ ॥ सततं सर्वदा भगवन्तं ब्रह्मस्वरूपं मां कीर्त- ! वे दृढ़ती भक्त अर्थात् जिनका निश्चय दृढ़- यन्तो यतन्तः च इन्द्रियोपसंहारशमदमदया- स्थिर-अचल है ऐसे वे भक्तजन सदा-निरन्तर ब्रह्म- हिंसादिलक्षणैः धर्मंः प्रयतन्तः च दृढव्रता दृढं स्वरूप मुझ भगवान्का कीर्तन करते हुए तथा स्थिरम् अचाञ्चल्यं व्रतं येषां ते दृढव्रता, धर्मोंसे युक्त होकर प्रयत्न करते हुए, एवं हृदयमें इन्द्रिय-निग्रह, शम, दम, दया और अहिंसा आदि नमस्यन्तः च मां हृदयेशयम् आत्मानं भक्त्या वास करनेवाले मुझ परमात्माको भक्तिपूर्वक नित्ययुक्ताः सन्त उपासते सेवन्ते ॥१४॥ नमस्कार करते हुए और सदा मेरा चिन्तन करनेमें लगे रहकर, मेरी उपासना-सेवा करते रहते हैं ॥१४॥