पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२४०

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श्रीमद्भगवद्गीता मन्त्रः अहं येन पितृभ्यो देवताभ्यः च तथा जिसके द्वारा देव और पितरोंको हवि हविः दीयते । अहम् एव आज्यं हविः च अहम् | पहुँचायी जाती है वह मन्त्र भी मैं ही हूँ। इसके अतिरिक्त मैं ही आज्य-हवि-वृत हूँ, जिसमें होम अग्निः यस्मिन् हूयते सः अग्निः अहम् एव अहं किया जाता है. वह अग्नि भी मैं ही हूँ और मैं ही हुतं हवनकर्म च ॥१६॥ । हवनरूप कर्म भी हूँ ॥ १६ ॥ तथा--- किं च- पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः । वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्सामयजुरेव च ॥ १७ ॥ पिता जनयिता अहम् अस्य जगतो माता मैं ही इस जगत्का उत्पन्न करनेवाला पिता और उसकी जन्मदात्री माता हूँ तथा मैं ही जनयित्री, धाता कर्मफलस्य प्राणिभ्यो विधाता, | प्राणियोंके कर्मफलका विधान करनेवाला विधाता पितामहः पितुः पिता, वेथं वेदितव्यम्, पवित्रं और पितामह अर्थात् पिताका पिता हूँ; तथा जाननेके योग्य, पवित्र करनेवाला, ओंकार, ऋग्वेद, पावनम्, ओंकारः च ऋक्सामयजुः एव च ॥१७॥ सामवेद और यजुर्वेद सब कुछ मैं ही हूँ॥ १७ ॥ किंच- तथा मैं ही- गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् । प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥ १८ ॥ गतिः कर्मफलम्, भर्ता पोष्टा, प्रभुः स्वामी, गति-कर्मफल, भर्ता-सबका पोषण करनेवाला, साक्षी प्राणिनां कृताकृतस्य, निवासो यस्मिन् प्रभु-सबका स्वामी, प्राणियोंके कर्म और अकर्मका | साक्षी, जिसमें प्राणी निवास करते हैं वह वासस्थान, प्राणिनो निवसन्ति, शरणम् आर्तानां प्रपन्नानाम् शरण अर्थात् शरणमें आये हुए दुःखियोंका दुःख आर्तिहरः, सुहृत् प्रत्युपकारानपेक्षः सन् दूर करनेवाला, सुहृद्-प्रत्युपकार न चाहकर उपकार करनेवाला, प्रभव----जगत्की उत्पत्तिका उपकारी, प्रभव उत्पत्तिः जगतः, प्रलयः प्रलीयते कारण और जिसमें सब लीन हो जाते हैं वह प्रलय यसिन् इति । भी मैं ही हूँ। तथा स्थानं तिष्ठति अस्मिन् इति, निधानं तथा जिसमें सब स्थित होते हैं वह स्थान, निक्षेपः कालान्तरोपभोग्यं प्राणिनाम, बीजं प्राणियोंके कालान्तरमें उपभोग करनेयोग्य कर्मोका भण्डाररूप निधान और अविनाशी बीज भी मैं ही प्ररोहकारणं प्ररोहधर्मिणाम् । अव्ययम् । हूँ अर्थात् उत्पत्तिशील वस्तुओंकी उत्पत्तिका अविनाशी कारण मैं ही हूँ।