पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२४१

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शांकरभाष्य अध्याय ६ यावत्संसारभावित्वाद् अव्ययम् । न हि जबतक संसार है तबतक उसका बीज भी अवश्य रहता है, इसलिये वीजको अविनाशी कहा अबीजं किंचित् प्ररोहति । नित्यं च प्ररोह- है; क्योंकि बिना बीजके कुछ भी उत्पन्न नहीं होता, और उत्पत्ति नित्य देखी जाती है, इससे दर्शनाद् बीजसंततिः न व्यति इति गम्यते१८ यह जाना जाता है कि बीजकी परम्पराका नाश नहीं होता ॥१८॥ किंच-- तथा- तपाम्यहमहं वर्ष निगृह्णाम्युत्सृजामि च । अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥ १६ ॥ तपामि अहम् आदित्यो भूत्वा कैश्चिद्रश्मिभिः मैं ही सूर्य होकर अपनी कुछ प्रखर रश्मियोंसे उल्वगैः अहं वर्ष कैश्चिद् रश्मिभिः उत्सृजामि सबको तपाता हूँ और कुछ किरणोंसे वर्षा करता हूँ तथा वर्षा कर चुकनेपर फिर कुछ रश्मियोंद्वारा उत्सृज्य पुनः निगृह्णामि कैश्चिद् रश्मिभिः आठ महीनेतक जलका शोषण करता रहता हूँ अष्टभिः मासैः पुनः उत्सुजामि प्रावृषि । और वर्षाकाल आनेपर फिर बरसा देता हूँ। अमृतं च एव देवानां मृत्युः च मानाम् । हे अर्जुन ! देवोंका अमृत और मर्त्यलोकमें बसनेवालोंकी मृत्यु तथा सत् और असत् सब मैं सद् यस्य यत् संबन्धितया विद्यमानं तद्विपरीतम् ही हूँ अर्थात् जो जिसके सम्बन्धसे विद्यमान है असत् च एव अहम् अर्जुन । वह और जो उसके विपरीत है वह भी मैं ही हूँ। न पुनः अत्यन्तम् एव असद् भगवान् परन्तु (यह ध्यानमें रखना चाहिये कि ) स्वयं भगवान् अत्यन्त असत् नहीं हैं । अथवा सत् और खयम् । कार्यकारणे वा सदसती । असत्का अर्थ यहाँ कार्य और कारण समझना चाहिये। ये पूर्वोक्तः अनुवृत्तिप्रकारैः एकत्व- जो ज्ञानी पहले कहे हुए क्रमानुसार एकत्व- पृथक्त्वादिविज्ञान यज्ञैः मां पूजयन्त पृथक्त्व आदि विज्ञानरूप यज्ञोंसे पूजन करते हुए उपासते ज्ञानविदः ते यथाविज्ञानं माम् एव | मेरी उपासना करते हैं वे अपने विज्ञानानुसार मुझे प्राप्नुवन्ति ॥१९॥ ही प्राप्त होते हैं ॥१९॥ ये पुनः अज्ञाः कामकामा:- परन्तु जो विषयवासनायुक्त अज्ञानी- विद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ठा वर्गतिं प्रार्थयन्ते । ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ॥२०॥ । . २९