पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२४५

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Hetaur-Kinahinwwe.....-.-.":22 शांकरभाष्य अध्याय ६ पत्रं पुष्पं फलं तोयम् उदकं यो मे मद्यं भक्त्या जो भक्त मुझे पत्र, पुष्प, फल और जल आदि प्रयच्छति तद् अहं पत्रादि भक्त्या उपहृतं भक्ति- कुछ भी वस्तु भक्तिपूर्वक देता है, उस प्रयतात्मा- पूर्वकं प्रापितं भक्त्या उपहृतम् अश्नामि गृहामि । शुद्ध-बुद्धि भक्तके द्वारा भक्तिपूर्वक अर्पण किये हुए दे पत्र-पुष्पादि मैं ( स्वयं ) खाता हूँ, अर्थात् प्रयतात्मनः शुद्धबुद्धेः ॥२६॥ ग्रहण करता हूँ॥२६॥ यत एवम् अत:--- क्योंकि यह बात है इसलिये- यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् । यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥ २७ ॥ यत् करोषि स्वतः प्राप्तं यद् अश्नासि यत् है कुन्तीपुत्र ! तू जो कुछ भी स्वतःप्राप्त कर्म च जुहोषि हवनं निवर्तयसि श्रोतं स्मात वा, करता है, जो खाता है, जो कुछ श्रौत या स्मार्त यद् ददासि प्रयच्छसि ब्राह्मणादिभ्यो हिरण्या- घृतादि वस्तु ब्राह्मणादि सत्पात्रोंको दान देता है यज्ञरूप हवन करता है, जो कुछ सुवर्ण, अन्न, माज्यादि यत् तपस्यसि तपः चरसि कौन्तेय और जो कुछ तपका आचरण करता है, यह सब तत् कुरुष्व मदर्पणं मत्समर्पणम् ॥ २७ ॥ मेरे समर्पण कर !॥२७॥ एवं कुर्वतः तव यद् भवति तत् शृणु- । ऐसा करनेसे तुझे जो लाभ होगा वह सुन- शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः। संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥२८॥ शुभाशुभफलैः एवं शुभाशुभे इष्टानिष्टफले इस प्रकार कर्मोंको मेरे अर्पण करके तू शुभाशुभ येषां तानि शुभाशुभफलानि कर्माणि तैः । फलयुक्त कर्मबन्धनसे अर्थात् अच्छा और बुरा शुभाशुभफलैः कर्मबन्धनैः कर्माणि एव बन्ध- जिसका फल है ऐसे कर्मरूप बन्धनसे छूट नानि तैः कर्मवन्धनैः एवं मत्समर्पणं कुर्वन् जायगा । तथा इस प्रकार तू संन्यासयोगयुक्तात्मा मोक्ष्यसे । सः अयं संन्यासयोगः नाम संन्यासः होकर, मेरे अर्पण करके कर्म किये जानेके कारण जो 'संन्यास' है और कर्मरूप होनेके कारण च असौ मत्समर्पणतया कर्मत्वाद् योगः च जो 'योग' है उस संन्यासरूप योगसे जिसका असौ इति तेन संन्यासयोगेन युक्त आत्मा अन्तःकरण युक्त है उसका नाम 'संन्यास-योग- अन्तःकरणं यस्य तव स त्वं संन्यासयोगयुक्तात्मा युक्तात्मा' है, ऐसा होकर,--तू इस जीवितावस्थामें सन् विमुक्तः कर्मवन्धनैः जीवन् एव ! ही कर्मबन्धनसे मुक्त होकर इस शरीरका नाश पतिते च असिन् शरीरे माम् उपैष्यसि | होनेपर मुझे ही प्राप्त हो जायगा । अर्थात् मुझमें आगमिष्यसि ॥२८॥ ही विलीन हो जायगा ॥२८॥