पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२४६

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श्रीमद्भगवद्गीता रागद्वेषवान् तर्हि भगवान् यतो भक्तान (यदि कहो कि) तब तो भगवान् राग-द्वेषसे अनुगृह्णाति न इतरान इति, तद्न- युक्त हैं क्योंकि वे भक्तोंपर ही अनुग्रह करते हैं दूसरोंपर नहीं करते, तो यह कहना ठीक नहीं है- समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वष्योऽस्ति न प्रियः । ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥ २६ ॥ समः तुल्यः अहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्यः अस्ति मैं सभी प्राणियोंके प्रति समान हूँ, मेरा न तो न प्रियः अग्निवद् अहम्, दूरस्थानां यथा अभिः (कोई ) द्वेष्य है और न (कोई) प्रिय है। मैं अग्निके शीतं न अपनयति समीपम् उपसर्पताम् अपन- प्राणियोंके शीतका निवारण नहीं करता, पास समान हूँ। जैसे अग्नि अपनेसे दूर रहनेवाले यति, तथा अहं भक्तान् अनुगृह्णामि न इतरान् । आनेवालोंका ही करता है, वैसे ही मैं भक्तोंपर अनुग्रह किया करता हूँ, दूसरोंपर नहीं। ये भजन्ति तु माम् ईश्वरं भक्त्या मयि ते जो (भक्त) मुझ ईश्वरका प्रेमपूर्वक भजन स्वभावत एव न मम रागनिमित्तं मयि वर्तन्ते । करते हैं वे, मुझमें स्वभावसे ही स्थित हैं, कुछ मेरी आसक्तिके कारण नहीं और मैं भी खभावसे ही तेषु च अपि अहं स्वभावत एव वर्ते न इतरेषु : उनमें स्थित हूँ दूसरोंमें नहीं । परन्तु इतनेहीसे यह न एतावता तेषु द्वेषो मम ॥२९॥ बात नहीं है कि मेरा उनमें (दूसरोंमें) द्वेष है ॥२९|| शृणु मद्भक्त माहात्म्यम्- मेरी भक्तिको महिमा सुन- अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् 1 साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥ ३० ॥ अपि चेद् यद्यपि सुष्ठु दुराचारः सुदुराचारः यदि कोई सुदुराचारी अर्थात् अतिशय बुरे अतीव कुत्सिताचारः अपि भजते माम् अनन्यभाक् आचरणवाला मनुष्य भी अनन्य प्रेमसे युक्त हुआ मुझ ( परमेश्वर ) को भजता है तो उसे साधु अनन्यभक्तिः सन् साधुः एव सम्यग्वृत्त एव ही मानना चाहिये अर्थात् उसे यथार्थ आचरण स मन्तव्यो ज्ञातव्यः सम्यग् यथावद् व्यवसितो करनेवाला ही समझना चाहिये, क्योंकि वह यथार्थ निश्चययुक्त हो चुका है— उत्तम निश्चयवाला हि यसात् साधुनिश्चयः सः ॥३०॥ हो गया है ॥ ३०॥ उत्सृज्य च बायां दुराचारताम् अन्त: आन्तरिक यथार्थ निश्चयकी शक्तिसे बाहरी सम्यग्व्यवसायसामर्थ्यात्- दुराचारिताको छोड़कर-- क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्ति निगच्छति । कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥ ३१ ॥