पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२४७

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शांकरभाष्य अध्याय ६ 3 क्षिप्रं शीघ्रं भवति धर्मात्मा धर्मचित्त एव शश्वत् । वह शीघ्र ही धर्मात्मा-धार्मिक चित्तवाला वन नित्यं शान्ति च उपशमं निगच्छति प्राप्नोति । जाता है और सदा रहनेवाली नित्य शान्ति-उपरति- को पा लेता है। शृणु परमार्थ कौन्तेय प्रतिजानीहि है कुन्तीपुत्र! तू यथार्थ बात सुन, तू यह निश्चितां प्रतिज्ञा कुरु, न मे मम भक्तो मयि निश्चित प्रतिज्ञा कर अर्थात् दृढ़ निश्चय कर ले कि समर्पितान्तरात्मा मद्भक्तो न प्रणश्यति जिसने मुझ परमात्मामें अपना अन्तःकरण समर्पित कर दिया है वह मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता, इति ॥३१॥ । अर्थात् उसका कभी पतन नहीं होता ।। ३१ ।। किंच. । तथा- मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः । स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्तिपरां गतिम् ॥ ३२ ॥ मां हि यस्मात् पार्थ व्यपाश्रित्य माम् आश्रय- क्योंकि हे पार्थ ! जो कोई पापयोनिवाले हैं त्वेन गृहीत्वा ये अपि स्युः भवेयुः पापयोनयः । अर्थात् जिनके जन्मका कारण पाप है ऐसे प्राणी पापा योनिः येषां ते पापयोनयः पापजन्मानः। हैं वे कौन हैं ? सो कहते हैं वे स्त्री, वैश्य और शूद्र के ते इति आह स्त्रियो वैश्याः तथा शूद्राः ते अपि भी मेरी शरणमें आकर-मुझे ही अपना अवलम्बन यान्ति गच्छन्ति परां गतिं प्रकृष्टां गतिम् ॥३२॥ । बनाकर परम-उत्तम गतिको ही पाते हैं ।। ३२ ॥ राजर्षयः । किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा । अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजख माम् ॥ ३३ ॥ किं पुनः ब्राह्मणाः पुण्याः पुण्ययोनयो भक्ता फिर जो पुण्ययोनि ब्राह्मण और राजर्षि भक्त हैं राजर्षयः तथा राजानः च ते ऋषयः च इति उनका तो कहना ही क्या है ? जो राजा भी हों और ऋषि भी हों, वे 'राजर्षि' कहलाते हैं। यत एवम् अतः अनित्यं क्षणभङ्गुरम् असुख क्योंकि यह बात है इसलिये इस अनित्य, च सुखवर्जितम् इमं लोकं मनुष्यलोकं प्राप्य, क्षणभंगुर और सुखरहित मनुष्यलोकको पाकर अर्थात् परम पुरुषार्थके साधनरूप दुर्लभ मनुष्य- पुरुषार्थसाधनं दुर्लभं मनुष्यत्वं लब्ध्वा भजख शरीरको पाकर मुझ ईश्वरका ही भजन कर मेरी सेवस्व माम् ॥३३॥ ही सेवा कर ॥ ३३॥ . .