पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२५३

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शांकरभाष्य अध्याय १० ये यथोक्तप्रकारैः भजन्ते मां भक्ताः . जो पुरुष मुझमें प्रेम रखते हुए उपर्युक्त प्रकारसे सन्तु:- मेरा भजन करते हैं- तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् । ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥ १० ॥ तेषां सततयुक्तानां नित्याभियुक्तानां निवृत्त- उन समस्त बाह्य तृष्णाओंसे रहित निरन्तर तत्पर सर्वबायैषणानां भजतां सेवमानानाम्, किम् अर्थि- होकर भजन-सेवन करनेवाले पुरुषोंको, किती सादिना कारणेन, न इति आह, प्रीतिपूर्वकं वस्तुकी इच्छा आदि कारणोंसे भजनेवालोंको नहीं प्रीतिः स्नेहः तत्पूर्वकं मां भजताम् इत्यर्थः । किन्तु प्रीतिपूर्वक भजनेवालोंको यानी प्रेमपूर्वक- ददामि प्रयच्छामि बुद्धियोगं बुद्धिः सम्यग्दर्शनं मेरा भजन करनेवालोंको, मैं वह बुद्धियोग देता हूँ। मत्तत्त्वविषयं तेन योगो बुद्धियोगः तं बुद्धि- मेरे तत्वके यथार्थ ज्ञानका नाम बुद्धि है, उससे युक्त योगम् । येन बुद्धियोगेन सम्यग्दर्शनलक्षणेन होना ही बुद्धियंग है । वह ऐसा बुद्धियोग मैं ( उनको) मां परमेश्वरम् आत्मभूतम् आत्मत्वेन उपयान्ति देता हूँ कि जिस पूर्णज्ञानरूप बुद्धियोगसे वे मुझ प्रतिपद्यन्ते। आत्मरूप परमेश्वरको आत्मरूपसे समझ लेते हैं। के, ते ये मच्चित्तत्वादिप्रकारैः वे कौन हैं ? जो 'मच्चित्ताः' आदि ऊपर कहे भजन्ते ॥ १०॥ हुए प्रकारोंसे मेरा भजन करते हैं ॥ १० ॥ S किमर्थं कस्य वा त्वत्प्राप्तिप्रतिबन्धहेतोः! आपकी प्राप्तिके कौन-से प्रतिबन्धके कारणका नाशक बुद्धियोगं तेषां त्वद्भक्तानां ददासि नाश करनेवाला बुद्धियोग आप उन भक्तों को देते हैं इति आकाङ्क्षायाम् आह- और किस लिये देते हैं ! इस आकांक्षापर कहते हैं- तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः। नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥ ११ ॥ तेषाम् एव कथं नाम श्रेयः स्याद् इति उन-( मेरे भक्तों) का किसी तरह भी कल्याण अनुकम्पार्थ दयाहेतोः अहम् अज्ञानजम् अविवेकतो हो, ऐसा अनुग्रह करनेके लिये ही मैं उनके आत्म- जातं मिथ्याप्रत्ययलक्षणं मोहान्धकारं तमो भावमें स्थित हुआ अर्थात् आत्माका भाव जो अन्तः- नाशयामि आत्मभावस्थ आत्मनो भावः अन्तः- करण है उसमें स्थित हुआ उनके अविवेकजन्य करणाशयः तस्मिन् एव स्थितः सन् । ज्ञानदीपेन मिथ्या प्रतीतिरूप मोहमय अन्धकारको प्रकाशमय विवेकप्रत्ययरूपेण । विवेक-बुद्धिरूप ज्ञानदीपकद्वारा नष्ट कर देता हूँ। भक्तिप्रसादस्नेहाभिषिक्तेन . मद्भावनाभि- अर्थात् जो भक्ति के प्रसादरूप वृतसे परिपूर्ण निवेशवातेरितेन ब्रह्मचर्यादिसाधनसंस्कारवत्- है और मेरे स्वरूपकी भावनाके अभिनिवेशरूप बायुकी सहायतासे प्रज्वलित हो रहा है, ! । ।