पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२५४

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श्रीमद्भगवद्गीता प्रज्ञावर्तिना विरक्तान्तःकरणाधारेणा | जिसमें ब्रह्मचर्य आदि साधनोंके संस्कारों से युक्त विषयव्यावृत्तचित्तरागद्वेषाकलुपितनिवाताय- बुद्धिरूप बत्नी है, आसक्तिरहित अन्तःकरण जिसका आधार है, जो विषयोंसे हटे हुए और रागद्वेषरूप वारकस्थेन नित्यप्रवृत्तैकाग्यध्यानजनितसम्य- । कालुष्यसे रहित हुए चित्तरूप वायुरहित अपवारकमें. ग्दर्शनभाखता ज्ञानदीपेन इत्यर्थः ॥ ११ ॥ (ढकनेमें) स्थित है और जो निरन्तर अभ्यास किये हुए एकाग्रतारूप ध्यान जनित, पूर्ण ज्ञानस्वरूप प्रकाशले युक्त है, उस ज्ञानदीपकद्वारा ( मैं उनके मोहका नाश कर देता हूँ)॥ ११ ॥ यथोक्तां भगवतो विभूति योगं च ऊपर कही हुई भगवान्की विभूतिको और श्रुत्वा- अर्जुन उवाच- योगको सुनकर अर्जुन बोला- परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् । पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ॥ १२ ॥ परं ब्रह्म परमात्मा परं धाम परं तेजः पवित्रं आप परमब्रह्म--परमात्मा, परमधाम-परमतेज पावनं परमं प्रकृष्टं भवान् पुरुषं शाश्वतं नित्यं दिव्यं और परमपावन हैं । तथा आप नित्य और दिव्य पुरुष हैं अर्थात् देवलोकमें रहनेवाले अलौकिक दिवि भवम् आदिदेवं सर्वदेवानाम् आदौ भवं पुरुष हैं एवं आप सब देवोंसे पहले होनेवाले देवम् अजं विभुं विभवनशीलम् ॥ १२ ॥ आदिदेव, अजन्मा और व्यापक हैं ॥ १२ ॥ ईदृशम्- । ऐसे- आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षि रदस्तथा । असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥ १३ ॥ आहुः कथयन्ति त्वाम् ऋषयो वसिष्ठादयः आपका वसिष्ठादि सत्र महर्षिगण वर्णन सर्वे देवर्षिः नारदः तथा असितो देवलः अपि करते हैं; तथा असित, देवल, व्यास और देवर्षि एवम् एव आह व्यासः च स्वयं च एव ब्रवीषि ' नारद भी इसी प्रकार कहते हैं एवं स्वयं आप भी मे॥१३॥ मुझसे ऐसा ही कह रहे हैं ॥ १३ ॥ सर्वमेतहतं मन्ये यन्मां वदसि केशव । न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ॥ १४ ॥ सर्वम् एतद् यथोक्तम् ऋषिभिः त्वया च तद् | हे केशव ! उपर्युक्त प्रकारसे ऋषियोंद्वारा और ऋतं सत्यम् एव मन्ये यद् मां प्रति वदसि भाषसे आपके द्वारा कही हुई ये सब बातें जो कि आप हे केशव । न हि ते तव भगवन् व्यक्ति प्रभवं हे भगवन् ! आपकी उत्पत्तिको न देवता जानते मुझसे कह रहे हैं, मैं सत्य मानता हूँ। क्योंकि विदुः न देवा न दानवाः ॥ १४ ॥ हैं और न दानव ही जानते हैं ॥ १४ ॥