पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२५६

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श्रीमद्भगवद्गीता अर्दतेः गतिकर्मणो* रूपम् । असुराणां गमन जिसका कर्म है ऐसी अर्द धातुका | रूप जनार्दन है । असुरोंको यानी देवोंके देवप्रतिपक्षभूतानां जनानां नरकादिगमयि- प्रतिपक्षी मनुष्योंको नरकादिमें भेजनेवाले होनेसे तृत्वाद् जनार्दनः । अभ्युदयनिःश्रेयसपुरुषार्थ- भगवान् का नाम जनार्दन है । अथवा उन्नति और कल्याण-ये दोनों पुरुषार्थरूप प्रयोजन सब लोगोंके प्रयोजनं सर्वैः जनैः याच्यते इति वा । द्वारा भगवान्से माँगे जाते हैं, इसलिये भगवान्का नाम जनार्दन है। भूयः पूर्वम् उक्तम् अपि कथय तृप्तिः हि यद्यपि आप पहले कह चुके हैं तो भी फिर कहिये, क्योंकि आपके मुखले निकले हुए वाक्यरूप परितोषो यस्माद् न अस्ति मे शृण्वतः त्वन्मुख- अमृतको सुनते-सुनते मुझे तृप्ति नहीं होती है-- निम्मृतवाक्यामृतम् ॥१८॥ सन्तोष नहीं होता है।॥१८॥ श्रीभगवानुवाच श्रीभगवान् बोले---- हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः । प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥ १६ ॥ हन्त इदानीं ते दिव्या दिवि भवा आत्मविभूतय हे कुरुवंशियोंमें श्रेष्ठ ! अब मैं तुझे अपनी आत्मनो मम विभूतयो याः ताः कथयिष्यामि | दिव्य-देवलोकमें होनेवाली विभूतियाँ प्रधानतासे बतलाता हूँ अर्थात् मेरी जहाँ-जहाँपर जो-जो प्रधान- इति एतत्, प्राधान्यतो यत्र यत्र प्रधाना या प्रधान विभूतियाँ हैं, उन-उन प्रधान विभूतियों का या विभूतिः तो तां प्रधानां प्राधान्यतः कथ- ही मैं प्रधानतासे वर्णन करता हूँ । सम्पूर्णतासे तो वे यिष्यामि अहं कुरुश्रेष्ठ । अशेषतः तु वर्षशतेन | सैकड़ों वर्षों में भी नहीं कही जा सकती, क्योंकि अपि न शक्या वक्तु यतो न अस्ति अन्तो | मेरे विस्तारका अर्थात् मेरी विभूतियोंका अन्त विस्तरस्य मे मम विभूतीनाम् इत्यर्थः ॥१९॥ नहीं हैं ॥१९॥ तत्र प्रथमम् एव तावत् शृणु-- उनमें तू पहली विभूतिको ही सुन- अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः। अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥ २० ॥ अहम् आत्मा प्रत्यगात्मा गुडाकेश गुडाका गुडाका-निद्रा उसका स्वामी यानी निद्रा-जयी होनेके कारण अथवा घनकेश होनेके कारण अर्जुनका निद्रा तस्या ईशो गुडाकेशो जितनिद्र इत्यर्थः, नाम गुडाकेश है । हे गुडाकेशसमस्त भूतोंके आशय- घनकेश इति वा ! सर्वेषां भूतानाम् आशये में यानी आन्तरिक हृदयदेशमें स्थित सत्रका अन्तरात्मा मैं हूँ (ऊँचे अधिकारियोंको तो) मेरा ध्यान सदा इस अन्तर्हदि स्थितः नित्यं ध्येयः। प्रकार करना चाहिये।

  • अर्द धातुके दो अर्थ होते हैं--गमन और याचना । यहाँ पहले गमन अर्थ स्वीकार करके उसके

अनुसार व्युत्पत्ति दिखलायी गयी है, फिर 'अथवा' कहकर पक्षान्तरमें याचना अर्थ भी स्वीकार किया गया है ।