पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२७३

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E- HINSA...::mangare":24.in" शांकरभाष्य अध्याय ११ रूपं महद् अतिप्रमाणं ते तव बहुवस्त्रनेत्रं . हे महाबाहो आपका यह रूप अति महान्- बहूनि वक्त्राणि मुखानि नेत्राणि च पि च बहुत लंबा-चौड़ा, अनेकों सुख और नेत्रोंवाला- जिसके अनेकों मुग्ध और नेत्र हैं ऐसा, बहुत-सी यसिन् तद् रूपं बहुवत्रनेत्रं हे महाबाहो, भुजाओं, जंबाओं और चरणोंबाला-जिसके बहुत- बहुवाहूरुपादं बहवो बाहर अरवः पादाः च सी भुजाएँ, जंघाएँ और चरण हैं ऐसा, तथा अद्भुत-से यस्मिन् रूपे तद् बहुबाहरुपादम्, किं च पेटोंवाला-जिसके बहुत-से पेट हैं ऐसा, और बहुत- बहूदरं बहूनि उदराणि यस्मिन् इति बहूदरम् , सी दाड़ोंसे अति विकराल आकृतिबाला है अर्थात् बहुदंष्ट्राकरालं बह्वीमि दंष्ट्राभिः करालं विकृतं बहुत-सी दाडोंके कारण जिसकी आकृति अति भयंकर हो गयी है, ऐसा है । आपके ऐसे (विकट) तद् बहुदंष्ट्राकरालम् । दृष्ट्वा रूपम् ईदृशं लोका रूपको देखकर संसारके समस्त प्राणी भयसे लौकिकाः प्राणिनः प्रव्यथिताः प्रचलिता भयेन व्याकुल हो रहे हैं---काँप रहे हैं, और मैं भी तथा अहम् अपि ॥ २३॥ उन्हींकी भाँति भयभीत हो रहा हूँ ॥२३॥ तत्र इदं कारणम्- उसमें यह कारण है कि- नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्ण व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् । दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृति न बिन्दामि शमं च विष्णो ॥ २४ ॥ नभःस्पृशं घुस्पर्शम् इत्यर्थः, दीप्तं प्रज्वलित्तम् आपको आकाशका स्पर्श किये हुए यानी अनेकवर्णम् अनेके वर्णा भयंकरा नानासंस्थाना स्वर्गतक व्याप्त, प्रदीप्त--प्रकाशमान और अनेक यस्मिन् त्वयि तं त्वाम् अनेकवर्णम् , व्यात्ताननं वर्णोवाले अर्थात् अनेक भयंकर आकृतियोंसे युक्त व्यात्तानि विवृतानि आननानि मुखानि देखकर तथा फैलाये हुए मुखोवाले—जिस शरीरमें यस्मिन् स्वयि तं त्वां व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रं फैलाये हुए बहुत-से मुख हैं ऐसे और दीप्त विशाल दीप्तानि प्रज्वलितानि विशालानि विस्तीर्णानि नेत्रोंवाले-जिसके बड़े-बड़े नेत्र प्रज्वलित हो रहे हैं नेत्राणि यस्मिन् त्वयि तं त्वां दीप्तविशाल- ऐसे, देखकर हे विष्णो ! प्रव्यथित-अन्तरात्मा- नेत्रम् , दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा प्रव्यथितः अत्यन्त भयभीत अन्तःकरणवाला मैं अर्थात् जिसका प्रभीतः अन्तरात्मा मनो यस्य मम सः अहं मन भयसे व्याकुल हो रहा है ऐसा, मैं धैर्य और प्रव्यथितान्तरात्मा सन् धृति धैर्य न विन्दामि न उपशमको अर्थात् मनकी तृप्तिरूप शान्तिको नहीं लभे शमं च उपशमं मनस्तुष्टिं हे विष्णो ॥२४॥ पा रहा हूँ ॥२४॥ - कस्माद- क्योंकि- दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसंनिभानि । दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसाद देवेश जगन्निवास ॥ २५ ॥