पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२७५

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SARABIA koli........... शांकरभाष्य अध्याय ११ कथं प्रविशन्ति मुखानि इति आहे- बे किस प्रकार मुखोंमें प्रवेश करते हैं, सो यथा नदीनां बहबोऽम्वुवेगाः समुद्रभेवाभिमुखा द्रवन्ति । तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविचलन्ति ॥ २८ ॥ यथा नदीनां सवन्तीनां बहवः अनेके अम्बूनां जैसे चलती हुई नदियोंके बहुत-से जलप्रवाह वेगा अम्बुवेगाः त्वराविशेषाः समुद्रम् एव अभिमुखाः बड़े वेगसे समुद्र के सम्मुख हुए ही दौड़ते हैं-समुद्र में प्रतिमुखा द्रवन्ति प्रविशन्ति तथा तद्वत् तब अमी ही प्रवेश करते हैं, वैसे ही यह मनुष्यलोकके शूरवीर भीष्मादयो नरलोकवीरा मनुष्यलोकशूरा त्रिशन्ति : भीष्मादि आपके प्रज्वलित---प्रकाशमान मुखोंमें वक्त्राणि अभिविज्वलन्ति प्रकाशमानानि ॥२८॥ प्रवेश कर रहे हैं ॥२८॥ ते किमर्थं प्रविशन्ति कथं च इति आह- वे किसलिये और किस प्रकार प्रवेश कर रहे हैं, सो कहते हैं- यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः । तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः॥२६॥ यथा प्रदीप्तं ज्वलनम् अग्निं पतङ्गाः पक्षिणो जैसे पतंग-पक्षीगण अपने नाशके लिये दौड़- विशन्ति नाशाय विनाशाय समृद्धवेगाः समृद्ध दौड़कर अत्यन्त वेगसे प्रदीप्त अग्निमें प्रवेश करते हैं, वैसे ही ( ये सब ) प्राणी भी नष्ट होनेके लिये उद्भूतो वेगो गतिः येषां ते समृद्धवेगा तथा एव दौड़-दौड़कर अत्यन्त वेगके साथ आपके मुखोंमें नाशाय विशन्ति लोकाः प्राणिनः तव अपि प्रवेश कर रहे हैं । जिनका वेग-गति बढ़ी हुई हो, वे वस्त्राणि समृद्धवेगाः ॥२९॥ 'समृद्धवेग' कहलाते हैं ॥२९|| । और आप- त्वं पुनः- लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ताल्लोकान्समग्रान्वदनै लद्भिः । तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं भासस्तबोग्राः प्रतपन्ति विष्णो ॥ ३० ॥ लेलिह्यसे आस्वादयसि ग्रसमानः अन्तः (उन ) समस्त लोकोंको देदीप्यमान मुखोद्वारा प्रवेशयन् समन्ततो लोकान् समग्रान् समस्तान्। सब ओरसे निगलते हुए चाट रहे हैं अर्थात् उनका वदनैः वक्त्रैः ज्वलद्भिः दीप्यमानैः। तेजोभिः आपूर्य संव्याप्य जगत् समग्रं सह अग्रेण समस्तम् आखादन कर रहे हैं । तथा हे विष्णो-व्यापनशील इति एतत् । किं च मासो दीप्तयः तव उग्राः परमात्मन् ! आपकी उग्र--कठोर प्रभाएँ समग्र क्रूराः प्रतपन्ति प्रतापं कुर्वन्ति हे विष्णो जगत्को अर्थात् समस्त जगत्को अपने तेजसे व्यापनशील ॥३०॥ व्याप्त करके तप रही हैं तेज फैला रही हैं ॥३०॥