पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२८३

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शांकरभाज्य अध्याय ११ करसाद् गुरुतरः त्वम् इति आह- आप कैसे गुरुतर हैं ? सो (अर्जुन) बतलाता है- न च त्वत्समः त्वत्तुल्यः अन्यः अस्ति । न है अप्रलिमप्रभावसारी त्रिलोकीमें आपके हि ईश्वरद्वयं संभवति अनेकेश्वरत्वे समान दूसरा कोई नहीं है क्योंकि अनेक ईश्वर मान लेनेपर व्यवहार सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिये व्यवहारानुपपत्तेः । त्वत्सम एव तावद् अन्यो ईश्वर दो नहीं हो सकते । जब कि सारे त्रिभुवनमें न संभवति कुत एव अन्यः अभ्यधिकः स्यात् । आपके समान ही दुसरा कोई नहीं है, फिर अधिक लोकत्रये अपि सर्वस्मिन् अप्रतिमप्रभाव । तो कोई हो ही कैसे सकता है ? प्रतिमीयते यथा सा प्रतिमा, न विद्यते जिससे किसी वस्तुकी समानता की जाय उसका प्रतिमा यस्य तव प्रभावस्य स त्वम् अप्रतिम- नाम 'प्रतिमा है, जिन आपके प्रभावकी कोई प्रतिमा प्रभाव हे अप्रतिमप्रभाव नितिशय प्रभाव नहीं है, वह आप अप्रतिमप्रभाव हैं । इस प्रकार इत्यर्थः ॥४३॥ हे अप्रतिमाभाव ! अर्थात हे निरतिशयप्रभाव ! ॥४३|| यत एवम्- जब कि यह बात है- तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम् । पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् ॥ १४॥ तस्मात् प्रणम्य नमस्कृत्य प्रणिधाय प्रकर्षण इसीलिये मैं अपने शरीरको भलीप्रकार नीचा नीचैः धृत्वा कायं शरीरं प्रसादये प्रसादं कारये करके अर्थात् आपके चरणोंमें रखकर प्रणाम करके स्तुति करनेयोग्य शासन-कर्ता आप ईश्वरको त्वाम् अहम् ईशम् ईशितारम् ईडय स्तुत्यम् । त्वं प्रसन्न करता हूँ । अर्थात् आपसे अनुग्रह कराता पुनः पुत्रस्य अपराधं पिता यथा क्षमते सर्व सखा 'हूँ। जैसे पुत्रका समस्त अपराध पिता क्षमा इव च सख्युः अपराधं यथा वा प्रियाया अपराधं करता है तथा जैसे मित्रका अपराध मित्र अथवा प्रियाका अपराध प्रिय (पति) क्षमा करता है- प्रियः क्षमते एवम् अर्हसि हे देव सोडु प्रसहितुं सहन करता है, वैसे ही हे देव ! आपको भी क्षन्तुम् इत्यर्थः ॥४४॥ ( मेरे समस्त अपराधोंको सर्बथा) सहन करना अर्थात् क्षमा करना उचित है |॥४४॥ अदृष्टपूर्व हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे । तदेव मे दर्शय देव रूप प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥ ४५ ॥ अदृष्टपूर्व न कदाचिद् अपि दृष्टपूर्वम् इदं आपके जिस विश्वरूपको मैंने या अन्य किसीने पहले कभी नहीं देखा, ऐसे पहले न देखे हुए विश्वरूपं तब मया अन्यैः वा तद् अहं दृष्ट्वा इस रूपको देखकर मैं हर्षित हो रहा हूँ ! तथा साथ हृषितः अस्मि भयेन च प्रव्यथितं मनो में । ही मेरा मन भयसे व्याकुल भी हो रहा है।