पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

शांकरभाष्य अध्याय १२ न अहं वेदैः ऋग्यजुःसामाथववेदः चतुभिः जिस प्रकार मुझे तूने देखा है ऐसे पहले दिखलाये अपि न तपसा उग्नेण चान्द्रायणादिना न अधर्व आदि चारों वेदांसे, न चान्द्रायण आदि हुए रूपवाला मैं न तो ऋक्, यजु, साम और दानेन गोभूहिरण्यादिना न च इज्यया यज्ञेन उग्र तपोते. न जौ, भूमि तथा सुवर्ण आदिके पूजया वा शक्य एवंविधौ यथादर्शितप्रकारो दानसे और न यजनसे हो देखा जा सकता हूँ अर्थात् यज्ञ या पूजासे भी मैं (इस प्रकार) द्रष्टुं दृष्टवान् असि मां यथा त्वम् ।।५३११ नहीं देखा जा सकता ॥५३।। कथं पुनः शक्य इति उच्यते-- तो फिर आपके दर्शन किस प्रकार हो सकते हैं ? इसपर कहते हैं- भक्त्या वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन । ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप ॥ ५४ ॥ भक्त्या तु किंविशिष्टया इति आह--- भक्तिसे दर्शन हो सकते हैं, सो किस प्रकारकी भक्तिसे हो सकते हैं, यह बतलाते हैं- अनन्यया अपथग्भूतया भगवतः अन्यत्र हे अर्जुन ! अनन्य भक्तिसे अर्थात् जो भगवान्- को छोड़कर अन्य किसी पृथक् वस्तुमें कभी भी नहीं पृथग् न कदाचिद् अपि या भवति सा तु होती वह अनन्य भक्ति है एवं जिस भक्ति के कारण अनन्या भक्तिः सः अपि करणैः वासुदेवाद् (भक्तिमान् पुरुषको) समस्त इन्द्रियोंद्वारा एक वासु- देव परमात्माके अतिरिक्त अन्य किसीकी भी उपलब्धि अन्यद् न उपलभ्यते यया सा अनन्या भक्तिः नहीं होती, वह अनन्य भक्ति है। ऐसी अनन्य भक्ति- द्वारा इस प्रकारके रूपवाला अर्थात् विश्वरूपवाला तया भक्त्या शक्यः अहम् एवंविधो विश्वरूप- ! मैं परमेश्वर शास्त्रोंद्वारा जाना जा सकता हूँ। केवल प्रकारो हे अर्जुन ज्ञातुं शास्त्रतो न केवलं ज्ञातुं शास्त्रोद्वारा जाना जा सकता हूँ इतना ही नहीं, हे परन्तप ! तत्त्वसे देखा भी जा सकता हूँ अर्थात् शास्त्रतो द्रष्टुं च साक्षात्कर्तुं तत्त्वेन तत्त्वतः : साक्षात् भी किया जा सकता हूँ और प्राप्त भी किया जा सकता हूँ अर्थात् मोक्ष भी प्राप्त करा प्रवेष्टुं च मोक्षं च गन्तुं परंतप ॥५४॥ सकता हूँ॥५४॥ अधुना सर्वस्य गीताशास्त्रस्य सारभूतः अर्थों अब समस्त गीताशास्त्रका सारभूत अर्थ संक्षेप- में कल्याणप्राप्तिके लिये कर्तव्यरूपसे बतलाया निःश्रेयसार्थः अनुष्ठेयत्वेन समुचित्य उच्यते-जाता है-