पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२८९

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mouTROREMOVलाmaameerwww.. द्वादशोऽध्यायः द्वितीयप्रभृतिषु अध्यायेषु विभूत्यन्तेषु दसरे अध्यायसे लेकर विभूतियोगतक अर्थात् दसवें अध्यायतक समस्त विशेषणोंले रहित परमात्मनो ब्रह्मणः अक्षरस्य विध्वस्तसर्व- अक्षर-ब्रह्म परमात्माकी उपासनाका वर्णन किया विशेषणस उपासनम् उक्तम् । गया है। सर्वयोगेश्वर्यसर्वज्ञानशक्तिमत्सत्योपाधेः तथा उन्हीं अध्यायोंमें स्थान-स्थानपर संपूर्ण योग-ऐश्वर्य और संपूर्ण ज्ञान-शक्तिसे युक्त, सत्त्व- ईश्वरस्य तव च उपासनं तत्र तत्र उक्तम् । गुणरूप उपाधिवाले आप परमेश्वरकी उपासनाका भी वर्णन किया गया है। विश्वरूपाध्याये तु ऐश्वरम् आद्यं समस्त- तथा विश्वरूप ( एकादश) अध्यायमें आपने जगदात्मरूपं विश्वरूपं त्वदीयं दर्शितम् उपास- आदि और समस्त जगत्का आत्मारूप अपना उपासनाके लिये ही मुझे संपूर्ण ऐश्वर्ययुक्त, सबका नार्थम् एव त्वया, तत् च दर्शयित्वा उक्तवान् विश्वरूप भी दिखलाया है और वह रूप दिखलाकर असि 'मत्कर्मकृत्' इत्यादि, अतः अहम् अनयोः आपने 'मेरे ही लिये कर्म करनेवाला हो' इत्यादि उभयोः पक्षयोः विशिष्टतरवुमुत्सया त्वां वचन भी कहे हैं । इसलिये इन दोनों पक्षोंमें कौन-सा पक्ष श्रेष्ठतर है, यह जाननेकी पृच्छामि इति- इच्छासे मैं आपसे पूछता हूँ । इस प्रकार अर्जुन उवाच-- अर्जुन बोला- एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते । ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥१॥ एवम् इति अतीतानन्तरश्लोकेन उक्तम् अर्थ 'एवम्' शब्दसे जिसके आदिमें 'मत्कर्मकृत्' परामृशति, मित्कर्मकल्' इत्यादिना। यह पद है, उस पासमें ही कहे हुए श्लोकके अर्थका अर्थात् एकादश अध्यायके अन्तिम श्लोकमें कहे हुए अर्थका ( अर्जुन) निर्देश करता है । एवं सततयुक्ता नैरन्तर्येण भगवत्कर्मादौ इस प्रकार निरन्तरतासे उपर्युक्त साधनोंमें अर्थात् यथोक्ते अर्थे समाहिताः सन्तः प्रवृत्ता इत्यर्थः। भगवदर्थ कर्म करने आदिमें दत्तचित्त हुए-लगे हुए जो भक्त, अनन्य भावसे शरण होकर पूर्वदर्शित ये भक्ता अनन्यशरणाः सन्तः त्वां यथादर्शितं विश्वरूपधारी आप परमेश्वरकी उपासना करते हैं- विश्वरूपं पर्युपासते ध्यायन्ति । उसीका ध्यान किया करते हैं।