पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३०

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शांकरभाष्य अध्याय २ ज्ञापकं च आहुः अस्व अर्थस्थ-~~-'अथ इस अर्थमें वे प्रमाण भी बतलाते हैं जैसे-'अथ चेत्त्वमिमं धयं सङ्ग्रामं न करिष्यसि' 'कर्मण्ये- चेरचलिम धर्थं संग्रामं न करिष्यति' 'कर्मण्ये- वाधिकारस्ते' 'कुरु कर्मैव तस्मात्त्वम्' इत्यादि । वाधिकारस्ते' 'कुरु कमैव तस्मात्यम्' इत्यादि । हिंसादियुक्तत्वाद् वैदिकं कर्म अधर्माय ( वे यह भी कहते हैं कि ) हिंसा आदिसे इति इयम् अपि आशङ्का न कार्या, कथम् , क्षात्रं युक्त होने के कारण वैदिक कर्म अधर्मका कारण है, ऐसी शंका भी नहीं करनी चाहिये । क्योंकि कर्म युद्धलक्षणं गुरुभ्रातपुत्रादिहिंसालक्षणम् गुरु, भ्राता और पुत्रादिकी हिंसा ही जिसका स्वरूप अत्यन्तरम् अपि स्वधर्मः इति कृत्वा न है ऐसा अत्यन्त क्रूर युद्धरूप क्षात्रकर्म भी खधर्म अधर्माय, तदकरणे च 'ततः स्वधर्म कीर्तिं च कहनेवाले तथा उसके न करनेमें 'ततः स्वधर्म माना जानेके कारण अवर्मका हेतु नहीं है, ऐसा हित्वा पापमवाप्स्यसि' इति ब्रुवता यावज्जी- कीर्ति च हित्वा पापमवाप्स्यखि' इस प्रकार दोष वादिश्रुतिचोदितानां पश्वादिहिंसालक्षणानां बतलानेवाले भगवान्का यह कथन तो पहले ही च कर्मणां प्राक् एव न अधर्मत्वम् इति सुनि- सुनिश्चित हो जाता है कि 'जीवनपर्यन्त कर्म करें इत्यादि श्रुतिवाक्योंद्वारा वर्णित पशु आदिकी हिंसा- श्चितम् उक्तं भवति इति । रूप कर्मोको करना अधर्म नहीं है । तत् असत्, ज्ञानकर्मनिष्ठयोः विभाग- परन्तु वह ( उन लोगों का कहना ) ठीक नहीं है क्योंकि भिन्न-भिन्न दो बुद्धियोंके आश्रित रहनेवाली वचनात् बुद्धिद्वयाश्रययोः। ज्ञाननिष्ठा और कर्मनिष्टाका अलग-अलग वर्णन है । 'अशोच्यान्' इत्यादिना भगवता यावत् | 'अशोच्यान्' इस श्लोकसे लेकर 'स्वधर्ममपि 'स्वधर्ममपि चावेक्ष्य' इति एतदन्तेन ग्रन्थेन चावेक्ष्य' इस श्लोकके पहले के प्रकरणसे भगवान्ने यत् परमार्थात्मतत्त्वनिरूपणं कृतं जिस परमार्थ-आत्मतत्त्वका निरूपण किया है वह सांख्यम् , तद्विषया बुद्धिः आत्मनो जन्मादि सांख्य है, तद्विषयक जो बुद्धि है अर्थात् आत्मामें षड्विक्रियाभावात् अकर्ता आत्मा इति जन्मादि छओं विकारोंका अभाव होनेके कारण आत्मा अकर्ता है. इस प्रकारका जो निश्चय उक्त प्रकरणार्थनिरूपणात् या जायते सा सांख्य- प्रकरणके अर्थका विवेचन करनेसे उत्पन्न होता है, बुद्धिः, सा येषां ज्ञानिनाम् उचिता भवति ते वह सांख्यत्रुद्धि है, वह जिन ज्ञानियों के लिये उचित सांख्याः। । होती है (जो उसके अधिकारी हैं) के सांख्ययोगी हैं। एतस्या बुद्धेः जन्मनः प्राक् आत्मनो देहा- इस (उपर्युक्त) बुद्धि के उत्पन्न होने से पहले-पहले, दिव्यतिरिक्तत्वकर्तृत्वभोक्तृत्वाद्यपेक्षो धर्मा- आत्माका देहादिसे पृथक्पन, कर्तापन और भोक्कापन माननेकी अपेक्षा रखनेवाला,जो धर्म-अधर्मके विवेकसे धर्मविवेकपूर्वको मोक्षसाधनानुष्ठाननिरूपण- युक्त मार्ग है, मोक्षसाधनोंका अनुष्ठान करनेके लिये लक्षणो योगः, तद्विषया बुद्धिः योगबुद्धिः, चेष्टा करना ही जिसका स्वरूप है, उसका नाम योग है, और तद्विषयक जो बुद्धि है, वह योग-बुद्धि है, वह सा येषां कर्मिणाम् उचिता भवति ते जिन कर्मियों के लिये उचित होती है ( जो उसके योगिनः। | अधिकारी हैं ) वे योगी हैं । तत्