पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२९१

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"STANIMHASE शांकरभाष्य अध्याय १२ किम् इतरे युक्ततमा न भवन्ति, न, किंतु तान् प्रति यद् वक्तव्यं तत् शृणु- तो क्या दूसरे युक्ततम नहीं हैं ? यह बात नहीं, किन्तु उनके विषयमें जो कुछ कहना है सो सुन-

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते । सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ॥ ३ ॥ ये तु अक्षरम् अनिर्देश्यम् अव्यक्तत्वाद् अशब्द- परन्तु जो पुरुष उस अक्षरकी-जोकि अव्यक्त होने- गोचरम् इति न निर्देष्टुं शक्यते अतः अनिर्देश्यम् के कारण शब्दका विषय न होनेसे किसी प्रकार भी अव्यक्तं न केन अपि प्रमाणेन व्यज्यते इति किसी भी प्रमाणसे प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता बतलाया नहीं जा सकता इसलिये अनिर्देश्य है और अव्यक्तं पर्युपासते परि समन्ताद् उपासते । इसलिये अव्यक्त है सब प्रकारसे उपासना करते हैं उपासनं नाम यथाशास्त्रम् उपाखस्य उपास्य वस्तुको शास्त्रोक्त विधिसे बुद्धिका विषय अर्थस्य विषयीकरणेन सामीप्यम् उपगम्य बनाकर उसके समीप पहुँचकर तैलधाराके तुल्य तैलधारावत् समानप्रत्ययप्रवाहेण दीर्घकालं समान वृत्तियोंके प्रवाहसे जो दीर्घकालतक उसमें यद् आसनं तद् उपासनम् आचक्षते । स्थित रहना है, उसको 'उपासना' कहते हैं। अक्षरस्य विशेषणम् आह- उस अक्षरके विशेषण बतलाते हैं--- सर्वत्रगं व्योमवद् व्यापि, अचिन्त्यन् च वह आकाशके समान सर्वव्यापक है और अव्यक्त होनेसे अचिन्त्य है, क्योंकि जो वस्तु इन्द्रियादि अव्यक्तत्वाद् अचिन्त्यम् । यद् हि करण-करणोंसे जाननेमें आती है उसीका मनसे भी गोचरंतद् मनसा अपि चिन्त्यं तद्विपरीतत्वाद् चिन्तन किया जा सकता है । परन्तु अक्षर उससे अचिन्त्यम् अक्षरं कूटस्थम् । विपरीत होनेके कारण अचिन्त्य और कूटस्थ है। दृश्यमानगुणम् अन्तर्दोष वस्तु कूटं जो वस्तु ऊपरसे गुणयुक्त प्रतीत होती हो और भीतर दोषोंसे भरी हो उसका नाम 'कूट' है। कूटरूपं कूटसाक्ष्यम् इत्यादौ कूटशब्दः प्रसिद्धो संसारमें भी 'कूटरूप' 'कूटसाक्ष्य' इत्यादि प्रयोगों- में लोके । तथा च अविद्यादि अनेकसंसारबीजम् कूट शब्द ( इसी अर्थमें ) प्रसिद्ध है। वैसे ही जो अविद्यादि अनेक संसारोंकी बीजभूत अन्तदोषोंसे अन्तर्दोषवद् मायाव्याकृतादिशब्दवाच्यं युक्त प्रकृति 'माया-अव्याकृत' आदि शब्दोंद्वारा कही जाती है एवं 'प्रकृतिको. तो माया मायां तु प्रकृति विद्यान्मायिन तु महेश्वरम् और महेश्वरको मायापति चाहिये' 'मेरी माया दुस्तर है! इत्यादि (क्षे० उ०४।१०) मम माया दुरत्यया श्रुति-स्मृतिके वचनोंमें जो माया नामसे प्रसिद्ध है, इत्यादौ प्रसिद्धं यत् तत् कूटस् । तस्मिन् कूटे उसका नाम कूट है । उस कूठ ( नामक माया ) में जो उसका अधिष्ठातारूपसे स्थित हो रहा हो, स्थितं कूटस्थं तदध्यक्षतया । उसका नाम कूटस्थ है। समझना