पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२९२

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श्रीमद्भगवद्गीता अथवा राशिः इव स्थितं कूटस्थम् अत एवं अथवा राशि----ढेर की भाँति जो (कुछ भी क्रिया अचलं यस्माद् अचलं तसाद् ध्रुवं नित्यम् न करता हुआ ) स्थित हो उसका नाम कूटस्थ है। इस प्रकार कूटस्थ होनेके कारण जो अचल है इत्यर्थः ॥३॥ और अचल होनेके कारण ही जो ध्रुव अर्थात् नित्य है ( उस ब्रह्मकी जो लोग उपासना करते संनियम्येन्द्रियग्राम सर्वत्र समबुद्धयः। ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥ ४ ॥ संनियम्य सम्यग् नियम्य संहृत्य इन्द्रियग्रामम् | तथा जो इन्द्रियोंके समुदायको भली प्रकार इन्द्रियसमुदायम्, सर्वत्र सर्वस्मिन् काले समबुद्धयः : संयम करके उन्हें विषयोंसे रोककर, सर्वत्र--सब समा तुल्या बुद्धिः येषाम् इष्टानिष्टप्राप्तौ ते समय सम-बुद्धिवाले होते हैं अर्थात् इष्ट और अनिष्टकी प्राप्तिमें जिनकी बुद्धि समान रहती है, ऐसे वे समवुद्धयः ते ये एवंविधाः ते प्राप्नुवन्ति माम् समस्त भूतोंके हितमें तत्पर अक्षरोपासक मुझे ही एव सर्वभूतहिते रताः। प्रास करते हैं। न तु तेषां वक्तव्यं किंचिद् मां ते प्राप्नु- उन अक्षर-उपासकोंके सम्बन्धमें 'वे मुझे प्राप्त वन्ति इति । 'ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्' इति हि ! 'ज्ञानीको तो मैं अपना आत्मा ही समझता हूँ' होते हैं। इस विषयमें तो कहना ही क्या है क्योंकि उक्तम् । नहि भगवत्स्वरूपाणां सतां युक्तः यह पहले ही कहा जा चुका है । जो भगत्रत्- खरूप ही हैं उन संतजनोंके विषयों युक्ततम या तमत्वम् अयुक्ततमत्वं वा वाच्यम् ॥ ४॥ । अयुक्ततम कुछ भी कहना नहीं बन सकता ॥ ४ ॥ कि तु- किन्तु---- क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥ ५॥ क्लेशः अधिकतरो. यद्यपि, मत्कादिपराणां ( उनको.) क्लेश अधिकतर होता है । यद्यपि मेरे क्लेशः अधिक एव. क्लेशः अधिकतरः तु ही लिये कर्मादि करने में लगे हुए साधकोंको भी बहुत अक्षरात्मनां - परमार्थदर्शिनां देहाभिमान- | क्लेश होता है, परन्तु जिनका चित्त अव्यक्तमें परित्यागनिमित्तः अव्यक्तासक्तचेतसाम् अव्यक्ते आसक्त है, उन अक्षरचिन्तक परमार्थदर्शियोंको तो आसक्तं चेतो येषां ते. अव्यक्तासक्तचेतसः। देहाभिमानका परित्याग करना पड़ता है इसलिये तेषाम् अव्यक्तासक्तचेतसाम् । उन्हें और भी अधिक क्लेश उठाना पड़ता है।