पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२९४

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२७८ श्रीमद्भगवद्गीता मयि एव विश्वरूपे ईश्वरे मनः संकल्प- तू मुझ विश्वरूप ईयरमें ही अपने संकल्प- विकल्पात्मकम् आधत्स्व स्थापय, मयि एव अध्य- बिकल्पात्मक मनको स्थिर कर और मुझमें ही निश्चय वसायं कुर्वतीं बुद्धिम् आधत्स्व निवेशय । करनेवाली बुद्धिको स्थिर कर लगा । ततः ते किं स्याद् इति शृणु--- उससे तेरा क्या (लाभ) होगा सो सुन-- निवसिष्यसि निवत्स्यसि निश्चयेन मदात्मना इसके पश्चात् अर्थात् शरीरका पतन होने के मयि निवासं करिष्यसि एव अतः शरीरपाताद् निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है उपरान्त त निःसन्देह एकात्मभावसे मुझमें ही ऊर्ध्वं न संशयः संशयः अत्र न कर्तव्यः ॥८॥! अर्थात् इस विषयमें संशय नहीं करना चाहिये ॥८॥ अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् । अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनंजय ॥ ६ ॥ अथ एवं यथा अवोचाम तथा मयि चित्त यदि इस प्रकार यानी जैसे मैंने बतलाया है समाधातुं स्थापयितुं स्थिरम् अचलं न शक्नोषि उस प्रकार तू मुझमें चित्तको अचल स्थापित नहीं चेत् ततः पश्चाद् अभ्यासयोगेन चित्तस्य कर सकता, तो फिर हे धनंजय! तू अभ्यासयोगके एकस्मिन् आलम्बने सर्वतः समाहृत्य पुनः द्वारा-चित्तको सब ओरसे खींचकर बारंबार एक पुनः स्थापनम् अभ्यासः. तत्पूर्वको योगः | अबलम्बनमें लगानेका नाम अभ्यास है उससे समाधानलक्षणः तेन अभ्यासयोगेन मां युक्त जो समाधानरूप योग है, ऐसे अभ्यास- विश्वरूपम् इच्छ प्रार्थयख आप्तुं प्राप्तुं हे योगके द्वारा--मुझ-विश्वरूप परमेश्वरको प्राप्त धनंजयः॥९॥ करनेकी इच्छा कर ॥९॥ अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव । मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ॥ १० ॥ अभ्यासे अपि असमर्थः असि अशक्तः असि ( यदि तू) अभ्यासमें भी असमर्थ है तो मेरे लिये कर्म करनेमें तत्पर हो--मदर्थकर्मका नाम तर्हि मस्कर्मपरमो भव, मदर्थ कर्म मत्कर्म तत्परमो मकर्म है, उसमें तत्पर हो अर्थात् मेरे लिये कर्म मत्कर्मप्रधान इत्यर्थः। अभ्यासेन विना करनेको ही प्रधान समझनेवाला हो । अभ्यासके बिना केवल मेरे लिये कर्म करता हुआ भी तू मदर्थम् अपि कर्माणि केवलं कुर्वन् सिद्धिं सत्त्व- अन्तःकरणकी शुद्धि और ज्ञानयोगकी प्रातिद्वारा शुद्धियोगज्ञानप्राप्तिद्वारेण अवाप्स्यसि ॥१०॥ परमसिद्धि प्राप्त कर लेगा ॥१०॥