पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२९८

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२८२ श्रीमद्भगवद्गीता क्षमी क्षमावान् आक्रुष्टः अभिहतो वा जो क्षमावान् है अर्थात् किसीके द्वारा गाली दी जानेपर या पीटे जाने पर भी जो विकार- रहित ही रहता है ।। १३ ॥ अविक्रिय एव आस्ते ॥१३॥ संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः । मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥ १४ ॥ संतुष्टः सततं नित्यं देहस्थितिकारणस्य तथा जो सदा ही सन्तुष्ट है अर्थात् देह-स्थिति- लाभे अलामे च उत्पन्नालंप्रत्ययः, तथा के कारणरूप पदार्थोकी लाभ-हानिमें जिसके 'जो कुछ होता है वही ठीक हैं। ऐसा 'अलम्' भाव हो गुणवल्लाभे विषयये च संतुष्टः सततम् । योगी गया है, इस प्रकार जो गुणयुक्त वस्तुके लाभमें और समाहितचित्तो यतात्मा संयतस्वभावो दृढ- उसकी हानिमें सदा ही सन्तुष्ट रहता है। तथा निश्चयः दृढः स्थिरो निश्चयः अध्यवसायो | जो समाहितचित्त, जीते हुए स्वभाववाला और दृढ़ | निश्चयवाला है अर्थात् आत्मतत्वके विषयमें जिसका यस्य आत्मतत्त्वविषये स दृढनिश्चयः । निश्चय स्थिर हो चुका है। मयि अर्पितमनोबुद्धिः संकल्पात्मकं मनः तथा जो मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धि- वाला है अर्थात् जिस संन्यासीका संकल्प-विकल्पात्मक अध्यवसायलक्षणा बुद्धिः ते मयि एवं अर्पिते स्थापित यस्य संन्यासिनः स मयि अर्पित- समर्पित हैं-~-स्थापित हैं। जो ऐसा मेरा भक्त है मन और निश्चयात्मिका बुद्धि ये दोनों मुझमें मनोबुद्धिः । य ईदृशो मद्भक्तः स मे प्रियः । वह मेरा प्यारा है । 'प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः' 'शानीको मैं अत्यन्त प्यारा हूँ और वह मुझे प्रिय है' इस प्रकार जो सप्तम अध्यायमें सूचित इति सप्तमेऽध्याये सूचितं तद् इह किया गया था उसीका यहाँ विस्तारपूर्वक वर्णन प्रपञ्च्यते ॥१४॥ किया जाता है ॥ १४॥ यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः । हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥ १५ ॥ यस्मात् संन्यासिनो न उद्विजते न उद्वेगं जिस संन्यासीसे संसार उद्वेगको प्राप्त नहीं गच्छति न संतप्यते न संक्षुभ्यते लोकः । होता अर्थात् संतप्त-क्षुब्ध नहीं होता और जो तथा लोकाद् न उद्विजते च यः । स्वयं भी संसारसे उद्वेगयुक्त नहीं होता। हर्षामर्षभयोद्वेगैः हर्षः च अमर्षः च भयं जो हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेगसे रहित है-- च उद्वेगः च तैः हर्षामर्षभयोद्वेगैः मुक्तः । प्रिय वस्तुके लाभसे अन्तःकरणमें जो उत्साह होता है,