पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२९९

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SHAIrnama MOHAdarninामINIREE शांकरभाष्य अध्याय १२ २८३ प्रियलाभे अन्ताकरणस उत्कर्षो रोमांच और अश्रुपात आदि जिसके चिह्न हैं रोमाञ्चनाश्रुपातादिलिङ्गः, अमर्षः असहिष्णुता उसका नाम 'हर्ष है, असहिष्णुताको 'अमर्ष' कहते भयं त्रास उद्वेग उद्विग्नता तैः मुक्तो यः हैं, बासका नाम 'भय' है और उद्विग्नता ही 'उद्वेग' है सच मे प्रियः ॥१५॥ इन सबसे जो मुक्त है वह मेरा प्यारा है ।।१५|| अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः । सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ १६ ॥ देहेन्द्रियविषयसम्बन्धादिषु अपेक्षाविषयेषु जो शरीर, इन्द्रिय, विषय और उनके सम्बन्ध अनपेक्षो निःस्पृहः, शुचिः बाह्येन आभ्यन्तरेण आदि स्पृहाके विषयोंमें अपेक्षारहित-निःस्पृह च शौचेन सम्पन्नः, दक्षः प्रत्युत्पन्नेषु कार्येषु है, बाहर-भीतरकी शुद्धिसे सम्पन्न है, और चतुर अर्थात् अनेक कर्तव्योंके प्राप्त होनेपर उनमें से तुरन्त सद्यो यथावत् प्रतिपत्तुं समर्थः । ही यथार्थ कर्त्तव्यको निश्चित करनेमें समर्थ है। उदासीनो न कस्यचिद् मित्रादेः पदं भजते तथा जो उदासीन अर्थात् किसी मित्र आदिका यः स उदासीनो यतिः, गतव्यथो मतभयः । पक्षपात न करनेवाला संन्यासी है और गतव्यथ यानी निर्भय है। सर्वारम्भपरित्यागी, आरम्यन्ते इति आरम्भा तथा जो समस्त आरम्भोंका त्याग करनेवाला है---जो आरम्भ किये जायें उनका नाम आरम्भ इहामुत्रफलभोगार्थानि कामहेतूनि कर्माणि है, इसके अनुसार इस लोक और परलोकके सर्वारम्भाः तान् परित्यक्तु शीलम् अस्य इति फलभोगके लिये किये जानेवाले समस्त कामनाहेतुक कमोंका नाम सर्वारम्भ है, उन्हें त्यागनेका सारम्भपरित्यागी, यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥१६॥ जिसका स्वभाव है ऐसा जो मेरा भक्त है वह मेरा प्यारा है ॥१६॥ P*** तथा- यो न हृष्यति न दृष्टि न शोचति न काङ्क्षति । शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥ १७ ॥ यो न हृष्यति इष्टप्राप्तौ, न द्वेष्टि अनिष्टप्राप्तौ, जो इष्ट वस्तुकी प्राप्तिमें हर्ष नहीं मानता, अनिष्टकी प्राप्तिमें द्वेष नहीं करता, प्रिय वस्तुका न शोचति प्रियवियोगे, न च अप्राप्तं कावति । वियोग होनेपर शोक नहीं करता और अप्राप्त शुभाशुभे कर्मणी परित्यक्त शीलम् अस्य इति । वस्तुकी आकांक्षा नहीं करता, ऐसा जो शुभ और अशुभ कर्मोका त्याग कर देनेवाला भक्तिमान् पुरुष है शुभाशुभपरित्यागी, भक्तिमान् यः स मे प्रियः ॥१७॥ वह मेरा प्यारा है ॥१७॥