पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३१

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श्रीमद्भगवद्गीता तथा च भगवता विभक्ते द्वे बुद्धी निर्दिष्टे- इसी प्रकार भगवान्ने 'एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धियोगे विमां शृणु' इस श्लोकसे अलग-अलग 'एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिोंगे विमां शृणु' इति । दो बुद्धियाँ दिखलायो हैं । तयोः च सांख्यबुद्धयाश्रयां ज्ञानयोगेन उन दोनों बुद्धियों से सांख्यबुद्धिके आश्रित निष्ठां सांख्यानां विभक्तां वक्ष्यति-‘पुरा निष्ठाको 'पुरा वेदात्मना मया प्रोक्ता' इत्यादि रहनेवाली सांख्ययोगियोंकी ज्ञानयोगसे (होनेवाली) वेदात्मना मया प्रोक्ता' इति । वचनोंसे अलग कहेंगे। तथा च योगबुद्धथाश्रयां कर्मयोगेन निष्ठां तथा योग-बुद्धिके आश्रित रहनेवाली कर्मयोगसे (होनेवाली) निष्ठाको 'कर्मयोगेन योगिनाम्' इत्यादि विभक्तां वक्ष्यति- कर्मयोगेन योगिनाम्' इति । वचनोंसे अलग कहेंगे । एवं सांख्यबुद्धि योगबुद्धिं च आश्रित्य द्वे कर्तापन-अकर्तापन और एकता-अनेकता, जैसी भिन्न-भिन्न बुद्धिके आश्रित रहनेवाले जो ज्ञान और निष्ठे विभक्त भगवता एवं उक्त ज्ञानकर्मणः कर्म हैं उन दोनोंका एक पुरुषमें होना असम्भव कर्तृत्वाकर्तृत्वैकत्वानेकत्वबुद्धथाश्रययोः एक- माननेवाले भगवान्ने ही स्वयं उपर्युक्त प्रकारसे सांख्यबुद्धि और योगबुद्धिका आश्रय लेकर अलग- पुरुषाश्रयत्वासंभवं पश्यता। अलग दो निष्ठाएँ कही हैं। यथा एतत् विभागवचनं तथैव दर्शितं जिस प्रकार (गीताशास्त्रमें) इन दोनों निष्ठाओंका शातपथीये ब्राह्मणे-एतमेव प्रनाजिनो लोक- ! अलग-अलग वर्णन है वैसे ही शतपथ-ब्राह्मणमें भी मिच्छन्तो ब्राह्मणाः प्रव्रजन्ति' (बृ० ४।४।२२ )इति चाहनेवाले वैराग्यशील ब्राह्मण संन्यास लेते हैं। दिखलाया गया है। (वहाँ) 'इस आत्मलोकको ही सर्वकर्मसंन्यासं विधाय तच्छेषेण-'किं इस प्रकार सर्व-कर्म-संन्यासका विधान करके उसी प्रजया करिष्यामो येषां नोऽयमात्मायं लोक वाक्यके शेष (सहायक) वाक्यसे कहा है कि जिन हमलोगोंका यह आत्मा ही लोक है (हम) (बृ० ४।४।२२) इति । सन्ततिसे क्या (सिद्ध ) करेंगे। तत्र एव च-'प्रारदारपरिग्रहात्पुरुष आत्मा वहीं यह भी कहा है कि प्राकृत आत्मा अर्थात् प्राकृतो धर्मजिज्ञासोत्तरकालं लोकत्रयसाधनं पुत्रं अज्ञानी मनुष्य धर्मजिज्ञासाके बाद और विवाहसे पहले तीनों लोकोंकी प्राप्तिके साधनरूप पुत्रकी द्विप्रकारं च वित्तं मानुषं दैवं च तत्र मानुषं वित्तं तथा दैव और मानुष ऐसे दो प्रकारके धनकी कर्मरूपं पितृलोकप्राप्तिसाधनं विद्यां च दैवं वित्तं | इच्छा करने लगा। इनमें पितृलोककी प्राप्तिका साधनरूप 'कर्म' तो मानुष-धन है और देवलोक- देवलोकप्राप्तिसाधनं सोऽकामयत' (वृ०१।४।१७) की प्राप्तिका साधनरूप विद्या' देव-धन है।' इति अविद्याकामवतः एव सर्वाणि कर्माणि इस तरह ( उपर्युक्त श्रुतिमें ) अविद्या और कामनावाले पुरुषके लिये ही श्रौतादि सम्पूर्ण कर्म श्रौतादीनि दर्शितानि । बताये गये हैं।