पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३०२

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त्रयोदशोऽध्यायः सप्तमे अध्याये भूचिते द्वे प्रकृती ईश्वरस्य । सातवें अध्यायमें ईश्वरकी दो प्रकृतियाँ बतलायी त्रिगुणात्मिका अष्टधा भिन्ना अपरा संसार- गयी हैं-पहली, आठ प्रकारसे विभक्त त्रिगुणात्मिका | प्रकृति जो संसारका कारण होनेसे 'अपरा' है। और हेतुत्वात् परा च अन्या जीवभूता क्षेत्रज्ञ- दूसरी 'परा' प्रकृति जो कि जीवभूत, क्षेत्रज्ञरूपा, लक्षणा ईश्वरात्मिका । ईश्वरामिका है। याभ्यां प्रकृतिभ्याम् ईश्वरो जगदुत्पत्ति- जिन दोनों प्रकृतियोंसे युक्त हुआ ईश्वर स्थितिलयहेतुत्वं प्रतिपद्यते । तत्र क्षेत्रक्षेत्रज्ञ- होता है, उन क्षेत्र और क्षेत्रज्ञरूप दोनों जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयका कारण लक्षणप्रकृतिद्वयनिरूपणद्वारेण तद्वत ईश्वरस्य प्रकृतियोंके निरूपणद्वारा उन प्रकृतियोंवाले ईश्वरका तत्त्व निश्चित करनेके लिये यह क्षेत्रविषयक' तत्वनिर्धारणार्थ क्षेत्राध्याय आरभ्यते । अध्याय आरम्भ किया जाता है। अतीतानन्तराध्याये च 'अद्वेष्टा सर्वभूतानाम्' इसके पहले बारहवें अध्यायमें 'अद्वेष्टा सर्व- इत्यादिना यावद् अध्यायपरिसमाप्तिः तावत् भूतानाम्' से लेकर अध्यायकी समाप्तिपर्यन्त तत्त्वज्ञानिनां संन्यासिनां निष्ठा यथा ते तत्त्वज्ञानी संन्यासियोंकी निष्ठा अर्थात् वे जिस प्रकार वर्तन्ते इति एतद् उक्तम्,केन पुनः ते तत्त्वज्ञानेन बर्ताव करते हैं, सो कहा गया । उपर्युक्त धर्मका आचरण करनेसे फिर वे कौन-से तत्त्व-ज्ञानसे युक्त युक्ता यथोक्तधर्माचरणाद् भगवतः प्रिया होकर भगवान्के प्यारे हो जाते हैं, इस आशयको भवन्ति इति एवमर्थः च अयम् अध्याय समझाने के लिये भी यह तेरहवाँ अध्याय आरम्भ आरम्यते । किया जाता है। प्रकृतिः च त्रिगुणात्मिका सर्वकार्यकरण- समस्त कार्य, करण और विषयोंके आकारमें विषयाकारेण परिणता पुरुषस्य भोगापवर्गार्थ- परिणत हुई त्रिगुणात्मिका प्रकृति पुरुषके लिये कर्तव्यतया देहेन्द्रियाद्याकारेण संहन्यते सः भोग और अपवर्गका सम्पादन करनेके निमित्त अयं संघात इदं शरीरं तद् एतत्- | देह-इन्द्रियादिके आकारसे संहत ( मूर्तिमान) होती है, वह संधात ही यह शरीर है, उसका वर्णन श्रीभगवानुवाच- करनेके लिये श्रीभगवान् बोले--- इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते । एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥ १॥