पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३०४

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२८८ श्रीमद्भगवद्गीता हे भारत यस्मात् क्षेत्रक्षेत्रज्ञेश्वरयाथात्म्ध- हे भारत ! जब कि क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ और ईश्वर-इनके व्यतिरेकेण न ज्ञानगोचरम् अन्यद् अवशिष्टम् यथार्थ स्वरूपसे अतिरिक्त अन्य कोई ज्ञानका विषय अस्ति तस्मात् क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः शेयभूतयोः यद् शेष नहीं रहता, इसलिये शेयस्वरूपक्षेत्र और क्षेत्रका ज्ञानं क्षेत्रक्षेत्रज्ञो येन ज्ञानेन विषयीक्रियते जो ज्ञान है--जिस ज्ञानसे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ प्रत्यक्ष तद् ज्ञानं सम्यग् ज्ञानम् इति मतम् अभिप्रायो किये जाते हैं, वही ज्ञान यथार्थ ज्ञान है। मुझ मम ईश्वरस्य विष्णोः । ईश्वर---विष्णुका यही मत--अभिप्राय है। ननु सर्वक्षेत्रेषु एक एव ईश्वरो न अन्य पूल-यदि समस्त शरीरोंमें एक ही ईश्वर है, तद्वयतिरिक्तो भोक्ता विद्यते चेत् तत ईश्वरस्य | उससे अतिरिक्त अन्य कोई भोक्ता नहीं है, ऐसा मानें, तो ईश्वरको संसारी मानना हुआ नहीं तो संसारित्वं प्राप्तम् ईश्वरव्यतिरेकेण वा संसारिणः | ईश्वरसे अतिरिक्त अन्य संसारीका अभाव होनेसे अन्यस्य अभावात् संसाराभावग्रसङ्गः तत् च संसारके अभावका प्रसङ्ग आ जाता है। यह दोनों ही अनिष्ट हैं, क्योंकि ऐसा मान लेनेपर बन्ध, उभयम् अनिष्टं बन्धमोक्षत तुशास्त्रानर्थक्य- मोक्ष और उनके कारणका प्रतिपादन करनेवाले प्रसङ्गात् प्रत्यक्षादिप्रमाणविरोधात् च । शास्त्र व्यर्थ हो जाते हैं और प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे भी इस मान्यताका विरोध है। प्रत्यक्षेण तावत् सुखदुःखतद्वेतुलक्षणः प्रत्यक्ष प्रमाणसे तो सुख-दुःख और उनका | कारणरूप यह संसार दीख ही रहा है। इसके संसार उपलभ्यते । जगद्वैचित्र्योपलब्धेः च सिवा जगत्की विचित्रताको देखकर पुण्य-पाप- धर्माधर्मनिमित्तः संसारः अनुमायते । सर्वम् हेतुक संसारका होना अनुमानसे भी सिद्ध होता है, परन्तु आत्मा और ईश्वरकी एकता मान लेने पर एतद् अनुपपन्नम् आत्मेश्वरैकत्वे । ये सब-के-सब अयुक्त ठहरते हैं। न, ज्ञानाज्ञानयोः अन्यत्वेन उपपत्तेः । उ०-यह कहना ठीक नहीं । क्योंकि ज्ञान और अज्ञानका भेद होनेसे यह सब सम्भव 'दूरमेते विपरीते विषची अविद्या या च विधेति (श्रुतिमें भी कहा है कि) प्रसिद्ध जो अविद्या ज्ञाता ।' ( का० उ०२।४) तथा च तयोः और विद्या हैं वे अत्यन्त विपरीत और भिन्न विद्याविद्याविषययोः फलभेदः अपि विरुद्धो समझी गयी हैं' तथा (उसी जगह) उन विद्या और अविद्याका फल भी श्रेय और प्रेय इस प्रकार परस्पर निर्दिष्टः श्रेयः च प्रेयः च इति । विद्याविषयः विरुद्ध दिखलाया गया है, इनमें विद्याका फल श्रेय श्रेयः प्रेयः तु अविद्याकार्यम् इति । (मोक्ष) और अविद्याका प्रेय (इष्ट भोगोंकी प्राप्ति) है । तथा च व्यास:-'दाविमावथ पन्थानौ' वैसे ही श्रीव्यासजीने भी कहा है कि 'यह दोनों (महा० शा० २४१ । ६ ) इत्यादि, 'इमो द्वावेव इत्यादि और यहाँ गीताशास्त्रमें भी दो निष्टाएँ ही मार्ग है' इत्यादि तथा 'यह दो ही मार्ग हैं' पन्थानौ' इत्यादि च । इह च द्वे निष्ठे उक्त। बतलायी गयी हैं। ।